नई दिल्ली: चित्तरंजन दास एक महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनीतिज्ञ, वकील तथा पत्रकार थे। उनको सम्मान पूर्वक ‘देशबंधु’ कहा जाता था। एक महत्वपूर्ण राष्ट्रवादी नेता के साथ-साथ वो एक सफल विधि-शास्त्री भी थे। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान उन्होंने ‘अलीपुर षड़यंत्र काण्ड’ (1908) के अभियुक्त अरविन्द घोष का बचाव किया था। कई और राष्ट्रवादियों और देशभक्तों की तरह इन्होंने भी ‘असहयोग आंदोलन’ के अवसर पर अपनी वकालत छोड़ दी और अपनी सारी संपत्ति मेडिकल कॉलेज तथा स्त्रियों के अस्पताल को दे डाली। कांग्रेस के अन्दर इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही और वो पार्टी के अध्यक्ष भी रहे। जब कांग्रेस ने इनके ‘कौंसिल एंट्री’ प्रस्ताव को मानने से इनकार कर दिया तब इन्होने ‘स्वराज पार्टी’ की स्थापना की।
चित्तरंजन दास का जन्म 5 नवंबर, 1870 को कोलकाता में हुआ था। उनका ताल्लुक ढाका के बिक्रमपुर के तेलिरबाग के प्रसिद्ध दास परिवार से था। उनके पिता भुबन मोहन दास कोलकाता उच्च न्यायालय में एक जाने माने वकील थे। ब्रह्म समाज के एक कट्टर समर्थक देशबंधु अपनी तीक्ष्ण बुद्धि और पत्रकारीय दृष्टिकोण के लिए जाने जाते थे। चित्तरंजन दास कलकत्ता उच्च न्यायालय के विख्यात वक़ील थे, जिन्होंने अलीपुर बम केस में अरविन्द घोष की पैरवी की थी।
चित्तरंजन दास ने अपनी चलती हुई वकालत छोड़कर गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और पूर्णतया राजनीति में आ गए। उन्होंने विलासी जीवन व्यतीत करना छोड़ दिया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए सारे देश का भ्रमण किया। उन्होंने अपनी समस्त सम्पत्ति और विशाल प्रासाद राष्ट्रीय हित में समर्पण कर दिया। वे कलकत्ता के नगर प्रमुख निर्वाचित हुए। उनके साथ सुभाषचन्द्र बोस कलकत्ता निगम के मुख्य कार्याधिकारी नियुक्त हुए। इस प्रकार श्री दास ने कलकत्ता निगम को यूरोपीय नियंत्रण से मुक्त किया और निगम साधनों को कलकत्ता के भारतीय नागरिकों के हित के लिए उन्हें नौकरियों में अधिक जगह देकर हिन्दू-मुस्लिम मतभेदों को दूर करने का प्रयास किया।
बंगाल और बम्बई की धारासभाओं में तो यह इतनी शक्तिशाली हो गई कि वहाँ द्वैध शासन प्रणाली के अंतर्गत मंत्रिमंडल तक का बनना कठिन हो गया। श्री दास के नेतृत्व में स्वराज्य पार्टी ने देश में इतना अधिक प्रभाव बढ़ा लिया कि तत्कालीन भारतमंत्री लार्ड बर्केनहैड के लिए भारत में सांविधानिक सुधारों के लिए चित्तरंजन दास से कोई न कोई समझौता करना ज़रूरी हो गया लेकिन दुर्भाग्यवश अधिक परिश्रम करने और जेल जीवन की कठिनाइयों को न सह सकने के कारण श्री चित्तरंजन दास बीमार पड़ गए और 16 जून, 1925 ई. को उनका निधन हो गया।
चित्तरंजन दास की मृत्यु के फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार से वार्ता की बात समाप्त हो गई और भारतीय स्वाधीनता की समस्या के शान्तिमय समाधान का अवसर नष्ट हो गया। चित्तरंजन दास के निधन का शोक संम्पूर्ण देश में मनाया गया। सारे देशवासी उन्हें प्यार से 'देशबंधु' कहते थे। उनके मरने पर विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने उनके प्रति असीम शोक और श्रद्धा प्रकट करते हुए लिखा-
एनेछिले साथे करे मृत्युहीन प्रान।
मरने ताहाय तुमी करे गेले दान।।