नई दिल्ली: अब सोने जा रहा हूँ तो नामवर सिंह के नहीं रहने की खबर आ रही है। आज ही उनकी चर्चा कई मौकों पर साथियों से होती रही। आजकल 'कविता के नए प्रतिमान' और 'इतिहास और आलोचना' से कुछ ना कुछ रोज पढ़ रहा हूँ। नामवर सिंह भारतीय किस्म के बौद्धिकों की परंपरा में आखिरी लोगों में से थे, इन लोगों के चले जाने के साथ एक युग के ज्ञान और परंपरा का जीवित प्रमाण भी समाप्त हो रहे हैं। आप कृष्णा जी के पीछे चले गए वहाँ मिलेंगे तो आपकी मुठभेड़ होगी ही उनसे।
मैंने एक टीवी चैनल में रहने के दौरान उनके एकांत को रिकॉर्ड करने की कोशिश की थी, जिसका एक हिस्सा चला, बहुत कुछ नहीं चला जिसमें वो चर्चाएं भी थीं कि नामवर सिंह कैसी फिल्में देखते थे, उनके प्रिय नायक-नायिका कौन से थे, जेनएयू में जाने के बाद कैसे साथियों के साथ विदेशी फिल्में देखते थे और उन्हें उस बस का नम्बर भी याद था जिसे पकड़ कर वो जेएनयू से मंडी हाउस नाटक देखने जाया करते थे। हिंदी के संसार के कुछ कूढ़मगज और निंदातुर लोगों ने इस दस्तावेजीकरण को साक्षात्कार के रूप में देखा था, उनकी बुद्धि पर तरस ही आया था तब। आज वह शूट एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज में तब्दील हो गया है।
कई बार सुनने का मौका मिला, लेकिन कुछ एकदम जेहन में धंसे हुए हैं। हिन्दू कालेज में नीलाभ और विश्वनाथ त्रिपाठी के बोलने के बाद भी जो उन्होंने ग़ालिब पर बोला उसमें पूर्व के वक्ताओं की समीक्षा तो थी ही, ग़ालिब की नई व्याखया भी थी। एनएसडी में पहले थियेटर एप्रीसिएशन कोर्स के दौरान कोर्स का उद्घाटन वक्तव्य 2010 में उन्होंने दिया, नाटक और रंगमंच की साफ समझ रुचि जगाने वाले श्रोताओं को। और, तीसरा गोविंद देशपांडे की श्रद्धांजलि सभा में उनका भाषण...कितना कुछ लिखने कहने को है उनके लिए...।
हिंदी समाज आज थोड़ा अधिक विपन्न हुआ है, क्योंकि नामवर सिर्फ किताबों से नहीं थे वो उसके बाहर भी व्यापक रूप से फैले हुए थे जिससे हिंदी भी फैली थी...।
नमन...।
अमितेश कुमार
असिस्टेंट प्रोफेसर, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी