पाखंड, ढोंग और अंधविश्वास के साथ धर्म के कॉकटेल में कितना नशा है कि देश की एक बड़ी आबादी इसी नशे में झूम रही है। इसकी ताज़ा मिसाल आसाराम के वो चाहने वाले हैं, जो उसकी रिहाई के लिए दुआएं मांग रहे थे, लेकिन यही दुआएं आसाराम के लिए बददुआएं बन गईं। एक तरफ आसाराम के गुनाहों का हिसाब किताब हो रहा था, जोधपुर सेंट्रल जेल में ही बनाई गई अदालत में जज उसे मुल्ज़िम से मुजरिम करार दे रहे थे तो दूसरी तरफ खुली आंखों के अंधे लोग आसाराम को फंसाए जाने का इल्ज़ाम लगा रहे थे। एक तरफ जज ने आसाराम के खिलाफ उम्रकैद की सज़ा का ऐलान किया तो दूसरी तरफ उसके चाहने वाले अब भी एक बलात्कारी को संत और भगवान कह कर बुला रहे थे। ये बात वाकई समझ से बाहर है, कि कैसे कोई आंख होते हुए भी इतना अंधा हो सकता हैं।
ज़रा महसूस कीजिए उस बेटी का दर्द जो तमाम मुश्किलों, डर, खौफ और दहशत के बावजूद अपनी बात से डिगी नहीं। ज़रा महसूस कीजिए उस बेटी की तड़प जो अपने ही चहते रहे संत के चेहरे से संत का नकाब उतार फेंकने की ज़िद ठाने बैठी थी। इसकी वजह मामूली नहीं है। छोटी सी उम्र में उसने वो सब कुछ देखा और जिया, जिसके बारे कोई और बेटी सोच भी नहीं सकती है। दरअसल वो चाहती भी यही थी कि किसी और बेटी को उस दर्द के दौर से न गुज़रना पड़े, जिससे वो गुज़री है। श्रद्धा, आस्था और बहुत सी उम्मीदें पाले एक बाप अपनी छोटी सी बेटी को आसाराम के आश्रम में छोड़ कर आया था। लेकिन जब आंख खुली तब तक सब गंवा बैठा था। शायद अब किसी पर भरोसा भी न कर सके। लेकिन अदालत के फैसले ने उसके भरोसे को एक नई ज़िंदगी दे दी है। अदालत ने इंसाफ किया, लेकिन बतौर एक समाज हम इंसाफ से कब काम लेंगे।
हम कब तक अपनी और अपने बच्चों की ज़िंदगी ऐसे ढोंगियों के नाम करते रहेंगे। ऐसे बाबाओं की एक लंबी लिस्ट है। जिन्होंने आस्था और धर्म के नाम पर भोले-भाले लोगों को अपना गुलाम सा बना लिया। एक झोपड़ी से ज़िदगी शुरू करने वाले इन बाबाओं ने करोड़ों का साम्राज्य खड़ा कर लिया। इतना बड़ा साम्राज्य कि वो अपने आगे देश की कानून व्यवस्था को ही बौना समझने लगते हैं। लेकिन फिर भी हमारी आंख आख़िर क्यों नहीं खुलती। शायद इसीलिए किसी ने लिखा है कि धर्म शराब था, बांटा गया और नशा भी हुआ, और इस नशे में बहुत कुछ लुटा दिया हमने।