नई दिल्ली: धोनी के ग्लव्ज पर बने पैरा-कमांडोज के 'बलिदान बैज' को लेकर विवाद तो चल ही रहा है लेकिन महेंद्र सिंह धोनी को समर्थन भी खूब मिल रहा है। हालांकि, ICC मामले में सख्त बना हुआ है लेकिन BCCI प्रशासकों की समिति के चेयरमैन विनोद राय ने साफ कह दिया है कि बलिदान बैज को हटाने की कोई जरूरत नहीं है। बता दें कि धोनी के ग्वल्ज पर बने बलिदान बैच का मामला विश्व कप में भारतीय टीम के पहले मैच (5 जून) में सामने आया था।
ये तो खबर की बात हो गई कि आखिर मामला क्या है? अब बात कर लेते हैं कि क्या आप ये जानते हैं कि बलिदान बैज होता क्या है और इसे पाना हर सैनिक का एक ख्वाब क्यों होता है? क्या आप जानते हैं कि बलिदान बैज पाने के लिए सैनिक को शरीर तोड़ देने वाली ट्रेनिंग से गुजरना पड़ता है। ये ट्रेनिंग ऐसी होती है जिसके बारे में सोचकर ही कई लोगों के होश उड़ जाते हैं। ये बैच सिर्फ पैरामिल्रिटी कमांडोज ही धारण कर सकते हैं।
सबसे घातक और काबिल होते हैं पैरामिल्रिटी कमांडोज
पैरामिल्रिटी कमांडोज सेना के सबसे घातक, काबिल, अत्याधुनिक हथियारों के अलावा बिना हथियारों के भी दुश्मनों को खाक करने की काबिलियत रखते हैं। पैरा कमांडो बनने के लिए जवानों को बतौर पैराट्रूपर्स क्वॉलिफाई करना होता है। इंडियन आर्मी में शामिल जवान ही पैराट्रूपर्स के लिए अप्लाई कर सकते हैं। अप्लाई करने के बाद 3 महीने के प्रोबेशन पीरियड के दौरान जवानों को कई प्रकार के शारीरिक और मानसिक परीक्षणों से गुजरना होता है और उनमें पास होना पड़ता है। इस प्रक्रिया में कई जवान रिजेक्ट भी हो जाते हैं।
लगानी होती हैं आसमान से पांच छलांगें
लेकिन, जो जवान अपने प्रोबेशन पीरियड के दौरान के दौरान टेस्ट पास कर लेते हैं उन्हें उत्तर प्रदेश के आगरा में बने पैराट्रूपर्स ट्रेनिंग स्कूल भेजा जाता है। यहां जवानों को आसमान से पांच जंप लगानी होती है। पांच छलांगों में से एक को रात के घने अंधेरे में लगाना होता है। इस प्रक्रिया के बाद जो जवान पैरा मिलिट्री में जाना चाहते हैं, उन्हें फिर तीन महीने की एक्स्ट्रा ट्रेनिंग और करनी पड़ती है। इस तरह से एक पैरा मिलिट्री में शामिल होने के लिए कुल छह महीने की ट्रेनिंग होती है।
ट्रेनिंग में क्या होता है?
दुनिया में सबसे मुश्किल ट्रेनिंग अगर किसी फोर्स की है तो वह पैरा मिलिट्री की है। इसकी ट्रेनिंग के दौरान जवान हर उस दर्दनाक मंजर से गुजरता है जिसके सिर्फ सोचने से ही आम इंसानों की चीख निकल जाए। ट्रेनिंग में जवानों को भूखा रखा जाता है, सोने नहीं दिया जाता, बुरी तरह थके होने के बावजूद ट्रेनिंग चलती रहती है, मानसिक और शारीरिक तौर पर टॉर्चर किया जाता है। स्थिति यहां तक होती है कि खाने को नहीं मिलने पर आसपास की उपलब्ध चीजों को खाकर ही गुजारा करना पड़ता है।
बलिदान बैज मिलने से पहले की एक परंपरा
ऐसी खतरनाक और दर्दनाक ट्रेनिंग को पूरा करने के बाद जवानों को गुलाबी टोपी दी जाती है। लेकिन, गुलाबी टोपी मिलने के बाद भी एक और पड़ाव होता है जिससे गुजरने पर ही जवान को बलिदान बैच मिलता है। दरअसल, पैरा कमांडोज को 'ग्लास ईटर्स' भी कहा जाता है। एक परंपरा के तहत टोपी मिलने के बाद जवान को रम से भरा ग्लास दिया जाता है और फिर उसे पीने के बाद जवानों को दांतों से ग्लास का किनारा काटकर उसे चबाकर अंदर निगलना पड़ता है। इसकी के बाद जवान के सीने पर बलिदान बैज सजाया जाता है।