नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई को राज्यसभा में भेजे जाने की खबर आने के बाद से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल सरकार के फैसले पर सवाल खड़े कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि पहली बार किसी रिटायर्ड जस्टिस को सरकार की तरफ संसद के ऊपरी सदन या फिर अहम पद दिया गया हो। इसकी शुरुआत कांग्रेस के जमाने में ही हो गई थी जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी। उस दौरान कई तरह के संवैधानिक बदलावों से लेकर व अन्य राजनीतिक मामलों को लेकर देश की अदालतों ने अहम फैसले दिए। इन फैसलों से तत्कालीन सरकार में हलचल मच गई थी। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मुद्दे पर (गोलक नाथ, बैंक राष्ट्रीयकरण) सुप्रीम कोर्ट के फैसले को दरकिनार करने के लिए इंदिरा सरकार ने संविधान में संशोधन कर दिया था। इस संशोधन के दौरान सरकार ने अपने पास विशेष अधिकार हासिल कर लिये थे जिसमें मौलिक अधिकारों को भी खत्म करने का अधिकार सरकार के पास आ गया था। केशवानंद भारती केस में भी पार्लियामेंट और सुप्रीम कोर्ट के बीच जमकर खींचतान चली थी। इसी तरह इमरजेंसी के दौरान भी 16 जजों का तबादला कर दिया गया था।
इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने 1973 में जस्टिस ए.एन रे को सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस बनाया गया था जिसकी काफी आलोचना हुई थी। उस वक्त सुप्रीम कोर्ट में एएन रे से काफी सीनियर तीन जज थे। लेकिन इन तीनों को सुपरसीड करते हुए एएऩ रे को सुप्रीम कोर्ट का चीफ जस्टिस नियुक्त किया गया था। एएन रे 1969 में सुप्रीम कोर्ट में जज बने थे। ठीक इसी तरह जस्टिस एचआर खन्ना को सुपरसीड कर कांग्रेस सरकार ने एमएच बेग को चीफ जस्टिस नियुक्त किया था। माना जाता है कि एमएच बेग को इंदिरा गांधी व्यक्तिगत तौर पर पसंद करती थी और बेग कई मसलों पर इंदिरा से राय लेते थे।
जस्टिस बहरूल इस्लाम राज्यसभा में कांग्रेस सांसद थे। वे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में जज रहे। उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था। 1956 से लेकर 1972 तक वे कांग्रेस में कई पदों पर रहे। 1968 में वे कांग्रेस पार्टी की तरफ राज्यसभा के सदस्य रहे। 1972 में बहरूल इस्लाम ने राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया और गुजरात हाईकोर्ट में जज नियुक्त हुए। 1980 में जब जनता पार्टी की हार हुई और एक बार फिर इंदिरा गांधी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी तो उन्हें सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया गया।
वहीं राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के दौरान भी कमोबेश यह क्रम जारी रहा। 1984 के सिख दंगों में कांग्रेस को क्लीन चिट देनेवाले जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को रिटायरमेंट के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का पहला चेयरमैन बनाया गया था। वे 1993 से 1998 तक इस पद पर रहे। 2004 में उन्हें राज्यसभा का सद्स्य नियुक्त किया गया। 2013 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस कृष्ण बल्लभ नारायण सिंह और मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस मुहम्मद कासिम मुहम्मद इस्माइल का तबादला कर दिया था। इमरजेंसी के बाद यह न्यायपालिका में यह पहली बार हो रहा था जब हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस को बगैर उनकी सहमति लिये तबादला किया गया हो। आम तौर पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के तबादले की प्रक्रिया में उनकी सहमति भी ली जाती है। इस तरह से कई ऐसे मामले आए जिनमें न्यायपालिका की नींव कमजोर करने की कोशिश हुई।