नई दिल्ली। वर्ष 2020 के लिए गांधी शांति पुरस्कार बंगबंधु शेख़ मुजीबुर रहमान को प्रदान किया जाएगा। वर्ष 2019 के लिए ओमान के (स्वर्गीय) सुल्तान कबूस बिन सैद अल सैद को गांधी शांति पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा। ये जानकारी केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय ने दी है। गांधी शांति पुरस्कार भारत सरकार द्वारा 1995 से हर साल प्रदान किया जा रहा है। इस पुरस्कार की स्थापना राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की 125 वीं जयंती के अवसर पर की गई थी। बता दें कि, बंगबंधु शेख़ मुजीबुर रहमान को बांग्लादेश में राष्ट्र का जनक माना जाता है।
2019 का पुरस्कार ओमान के दिवंगत सुलतान को
इसी तरह वर्ष 2019 का गांधी शांति पुरस्कार ओमान के सुलतान कबूस बिन सैद अल को प्रदान किया जाएगा। उन्हें मरणोपरांत यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय ने सोमवार को इन पुरस्कारों की घोषणा की।
गौरतलब है कि, गांधी शांति पुरस्कार व्यक्तियों और संस्थानों को अहिंसा और अन्य गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन के लिए उनके योगदान के लिए दिया जाता है। केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय के बयान के अनुसार, इस पुरस्कार को बांग्लादेश के पूर्व नेता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली एक जूरी समिति द्वारा इस महीने की शुरुआत में देने के लिए चयन किया गया था। यह पुरस्कार पट्टिका के अलावा 1 करोड़ रुपये का नकद पुरस्कार और प्रशस्ति पत्र प्रदान करता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की स्वतंत्रता की स्वर्ण जयंती और बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान की जन्म शताब्दी समारोह में शामिल होने के लिए 26 मार्च को ढाका जाने वाले हैं। रहमान बांग्लादेश के पहले राष्ट्रपति और बाद में बांग्लादेश के प्रधानमंत्री थे। 15 अगस्त, 1975 को उनकी हत्या कर दी गई। रहमान को बांग्लादेश में "राष्ट्रपिता" या "मुजीब" के रूप में जाना जाता है।
जानिए शेख़ मुजीबुर रहमान के बारे में
शेख़ मुजीबुर रहमान बांग्लादेश के संस्थापक नेता और महान अगुआ एवं प्रथम राष्ट्रपति थे। उन्हें सामान्यत: बंगलादेश का जनक कहा जाता है। वे अवामी लीग के अध्यक्ष थे। उन्होंने पाकिस्तान के ख़िलाफ़ सशस्त्र संग्राम की अगुवाई करते हुए बांग्लादेश को मुक्ति दिलाई। वे बांग्लादेश के प्रथम राष्ट्रपति बने और बाद में प्रधानमंत्री भी बने। वे 'शेख़ मुजीब' के नाम से भी प्रसिद्ध थे। उन्हें 'बंगबन्धु' की पदवी से सम्मानित किया गया।
बांग्लादेश की मुक्ति के तीन वर्ष के भीतर ही 15 अगस्त 1975 को सैनिक तख़्तापलट के द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। उनकी दो बेटियों में एक शेख हसीना तख़्तापलट के बाद जर्मनी से दिल्ली आईं और 1981 तक दिल्ली में रहीं तथा 1981 के बाद बांग्लादेश जाकर पिता की राजनैतिक विरासत को संभाला।