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पहले भी पेश हुये हैं महाभियोग के प्रस्ताव, सुप्रीम कोर्ट जज के खिलाफ आया था पहला प्रस्ताव

देश के चीफ जस्टिस को पद से हटाने के लिये उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का यह भले ही पहला मामला हो, लेकिन इसके पहले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही चलायी जा चुकी है।

Edited by: IndiaTV Hindi Desk
Published on: April 20, 2018 19:01 IST
Supreme court- India TV Hindi
Image Source : PTI Supreme court

नयी दिल्ली: देश के चीफ जस्टिस को पद से हटाने के लिये उनके खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का यह भले ही पहला मामला हो, लेकिन इसके पहले सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों के खिलाफ इस तरह की कार्यवाही चलायी जा चुकी है। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के खिलाफ दुर्व्यवहार और पद के दुरुपयोग के आरोप में कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दलों की ओर से आज राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू को महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सौंपा है। 

आजाद भारत में पहली बार किसी जज को पद से हटाने की कार्यवाही मई 1993 में प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव के कार्यकाल में हुयी थी। उस समय सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस वी रामास्वामी के खिलाफ लोकसभा में महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था। उनके खिलाफ 1990 में पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के पद पर रहते हुये भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के आधार पर पद से हटाने के लिये महाभियोग प्रस्ताव पेश किया गया था। हालांकि यह प्रस्ताव लोकसभा में ही पारित नहीं हो सका था। 

इसके बाद साल 2011 में कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ ऐसा ही प्रस्ताव राज्यसभा सदस्यों ने पेश किया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस बी सुधाकर रेड्डी की अध्यक्षता वाली जांच समिति ने उन्हें अमानत में खयानत का दोषी पाया था। जांच समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही उन्हें कदाचार के आरोप में पद से हटाने के लिये पेश प्रस्ताव को राज्यसभा ने 18 अगस्त, 2011 को पारित कर किया। इस प्रस्ताव पर लोकसभा में बहस शुरू होने से पहले ही न्यायमूर्ति सेन ने एक सितंबर, 2011 को अपने पद इस्तीफा दे दिया। हालांकि उन्होंने राष्ट्रपति को भेजे त्यागपत्र में कहा था, ‘‘मैं किसी भी तरह के भ्रष्टाचार का दोषी नहीं हूं।’’ 

इसके बाद कर्नाटक हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस पी डी दिनाकरण पर भी पद का दुरूपयोग करके जमीन हथियाने और बेशुमार संपत्ति अर्जित करने जैसे कदाचार के आरोप लगे थे। इस मामले में भी राज्यसभा के ही सदस्यों ने उन्हें पद से हटाने के लिये कार्यवाही हेतु याचिका दी थी। इस मामले में काफी दांव पेंच अपनाये गये। जस्टिस दिनाकरण ने जनवरी, 2010 में गठित जांच समिति के एक आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी। बाद में अगस्त 2010 में सिक्किम हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस नियुक्त किये गये जस्टिस दिनाकरण ने इसमें सफलता नहीं मिलने पर 29 जुलाई, 2011 को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इस तरह उन्हें महाभियोग की प्रक्रिया के जरिये पद से हटाने का मामला वहीं खत्म हो गया। 

इसके बाद, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के जज सी वी नागार्जुन रेड्डी और गुजरात हाईकोर्ट के जस्टिस जे बी पार्दीवाला के खिलाफ भी महाभियोग की कार्यवाही के लिये राज्यसभा में प्रतिवेदन दिये गये। जस्टिस पार्दीवाला के खिलाफ तो उनके 18 दिसंबर, 2015 के एक फैसले में आरक्षण के संदर्भ में की गयी टिप्पणियों को लेकर यह प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन मामले के तूल पकड़ते ही जस्टिस पार्दीवाला ने 19 दिसंबर को इन टिप्पणियों को फैसले से निकाल दिया था। 

मध्य प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस एस के गंगले के खिलाफ वर्ष 2015 में एक महिला न्यायाधीश के यौन उत्पीडन के आरोप में राज्यसभा के सदस्यों ने महाभियोग प्रस्ताव का नोटिस सभापति को दिया था। इस प्रतिवेदन के आधार पर न्यायाधीश जांच कानून के प्रावधान के अनुरूप समिति गठित होने के बावजूद न्यायमूर्ति गंगले ने इस्तीफा देने की बजाय जांच का सामना करना उचित समझा। दो साल तक चली जांच में यौन उत्पीडन का एक भी आरोप साबित नहीं हो सकने के कारण महाभियोग प्रस्ताव सदन में पेश नहीं हो सका। 

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