नई दिल्ली: पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों में सताए हुए गैर मुस्लिम अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने के प्रावधान वाले विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दिये जाने की अटकलें हैं। इन्हीं अटकलों के बीच वरिष्ठ कानूनविद और दिल्ली उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस एन धींगरा ने इसके प्रावधानों को संविधान सम्मत बताते हुए कहा है कि यह कानून तो आजादी के बाद ही लागू किया जाना चाहिये था। इसी कानून पर पूर्व न्यायाधीश धींगरा ने कई कवालों के जवाब दिए।
सवाल: नागरिकता संशोधन कानून को देश की मौजूदा परिस्थितियों के लिहाज से कितना प्रासंगिक मानते हैं, क्या यह उचित समय पर लाया गया उचित कानून है?
जवाब: जो भी परिस्थितियां आज देश में बनी हैं वे इस कानून के पारित होने के बाद बनीं, इसलिये परिस्थितियों की बुनियाद पर कानून बनाने के समय के औचित्य पर सवाल उठाना जायज नहीं है। मेरा तो मानना है कि यह कानून बहुत देर से उठाया गया एक ऐसा कदम है जिसे आजादी के तुरंत बाद लागू किया जाना चाहिये था। मैं सोचता हूं कि आजादी के बाद 1950 में हुये नेहरू लियाकत समझौते का पाकिस्तान द्वारा पालन नहीं किये जाने के बाद ही इस प्रकार का कानून लागू किया जाना चाहिये था। ऐसा करने में बहुत देर हो गयी।
सवाल: कानून में धर्म के आधार पर भेदभाव करने के प्रावधानों को शामिल करने के कारण इसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 25 के विरुद्ध बताए जाने की दलील कितनी सही है?
जवाब: जो लोग ये दलील दे रहे हैं, शायद उन्हें यह मालूम ही नहीं है कि संविधान धर्म और जाति दोनों के आधार पर भेदभाव करना स्वीकार करता है। विभिन्न जातियों को दिया गया आरक्षण, जाति के आधार पर दी गयी विशेष सुविधा है जबकि संविधान में लिखा है कि जाति के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा। यह भेदभाव इसलिये किया गया, क्योंकि ये जातियां प्रताड़ना की शिकार थीं। उन्हें एक समान पायदान पर लाने के लिये ही स्वयं संविधान ने यह भेदभाव करने की छूट दी। दरअसल हम यह मानते हैं कि यह भेदभाव नहीं है बल्कि इसे संविधान द्वारा धर्म और जाति सहित विभिन्न आधारों पर किया गया वर्गीकरण कहते है। इसीलिये कुछ राज्यों ने संविधान के तहत ही धर्म के आधार पर पांच प्रतिशत तक आरक्षण की व्यवस्था की है। संविधान स्वयं कहता है कि असमान लोगों को समान नहीं माना जा सकता है। इसलिये कानून के नजरिये से मैं नागरिकता संशोधन कानून को संविधान विरुद्ध नहीं मानता हूं।
सवाल: नागरिकता कानून में एक खास ‘समुदाय’ को नागरिकता की सुविधा से बाहर कर देने पर सवाल उठ रहे हैं और इसी को भेदभाव का आधार बताते हुये पूर्वोत्तर सहित अन्य इलाकों में अशांति पनपने की वजह बताना कितना सही है ?
जवाब: जिसे आप समुदाय कह रहे हैं वह समुदाय नहीं धर्म है और उस धर्म को कानून से क्यों बाहर रखा गया उसकी वजह कानून में ही स्पष्ट की गयी है कि इसमें निर्दिष्ट तीनों देशों में उस धर्म के लोग प्रताड़ना के शिकार नहीं हैं। आपका आशय मुस्लिम धर्म से है और यह भी सही है कि इस धर्म के लोग इन देशों से धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत नहीं आते हैं बल्कि रोजगार सहित अन्य आर्थिक कारणों या किसी अन्य वजह से आते हैं।
सवाल: इस कानून में नागरिकता के लिये शरणार्थी के तौर पर भारत में रहने की समय सीमा को 11 साल से घटाकर पांच साल करने का प्रावधान क्या नागरिकता के मामले में धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता है?
जवाब: कानून में स्पष्ट प्रावधान है कि यह नागरिकता सिर्फ निर्दिष्ट तीन देशों के छह धर्मों के लोगों को ही मिलेगी जो धार्मिक प्रताड़ना के कारण भारत आकर पांच साल से रह रहे हैं। इन देशों में मुसलमानों के साथ भेदभाव की गुंजाइश जब है ही नहीं तो फिर भेदभाव का प्रश्न ही नहीं उठता है। हां अगर, नेपाल, म्यामां या किसी अन्य देश से आने वाले हिंदू या किसी अन्य धर्म के व्यक्ति को नागरिकता दी जाती है और मुसलमान को नहीं, तब यह बेशक भेदभाव के ही दायरे में आता है।
सवाल: कानून की संवैधानिकता को न्यायालय में चुनौती देने की संभावना को देखते हुये क्या यह न्यायिक पुनरावलोकन के परीक्षण पर खरा उतर सकेगा?
जवाब: कानून की मेरी समझ के मुताबिक यह पूरी तरह से संवैधानिक है। मुझे संवैधानिक प्रावधानों के हिसाब से इसमें कुछ भी अवैधानिक नजर नहीं आाता है। अब उच्चतम न्यायालय का इस बारे में क्या नजरिया होगा, इस पर मैं कुछ नहीं बोल सकता हूं। यह मामले को सुनने वाले न्यायाधीशों के नजरिये पर निर्भर करता है कि वे इसके प्रावधानों की किस प्रकार व्याख्या करते हैं। मैं सिर्फ यही कहूंगा कि अगर उच्चतम न्यायालय धर्म के नाम पर प्रताड़ना को प्रताड़ना नहीं मानता है तो फिर उसे अपने पुराने फैसलों पर भी पुनर्विचार करना पड़ेगा।