नई दिल्ली. भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद में सलाहकार रह चुके प्रोफेसर ब्रह्म चेलानी का मानना है कि भारत को चीन की आक्रामकता का आर्थिक व कूटनीतिक सहित हर मोर्चे पर जवाब देना चाहिए। उनके मुताबिक चीन अतिक्रमण किए गए हमारे क्षेत्र को आसानी से खाली नहीं करने वाला है। इस पर अपने दावे को मजबूत करने के लिए वह बातचीत के बहाने समय काटना चाहता है।
लद्दाख में भारत और चीन की सेना के बीच गतिरोध और इससे पैदा हालात पर नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सामरिक विषयों के प्रोफेसर ब्रह्म चेलानी से भाषा के पांच सवाल और उनके जवाब।
सवाल: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शुक्रवार को लेह के नजदीक निमू का दौरा किया और वहां जवानों को संबोधित किया। चीन ने उस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दी है। आपका क्या आकलन है?
जवाब: पीएम मोदी के लद्दाख के अग्रिम मोर्चे के दौरे ने चीन की आक्रामकता और अतिक्रमण के खिलाफ भारत की दृढ़ता और आक्रामकता को रेखांकित किया है। हालांकि, हिमालयी क्षेत्र में चल रही तनातनी और चीन के अतिक्रमण को कई हफ्ते तक कम करके बताने का संगठित सरकारी प्रयास हुआ। लेकिन पीएम मोदी के इस दौरे ने युद्ध जैसी स्थिति का सामना कर रहे भारत के लिए सबका ध्यान खींचने में मदद की। उनका दौरा और उनका संबोधन जवानों का मनोबल ऊंचा करने वाला था। पीएम मोदी द्वारा विस्तारवाद का जिक्र, चीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के खिलाफ बढ़ती अंतरराष्ट्रीय चिंता की भावना का समर्थन करता है।
सवाल: प्रधानमंत्री ने अपने भाषणों में चीन का नाम लेने से परहेज किया है। विपक्षी दलों ने इसके लिए उन्हें निशाने पर भी लिया है। चीन का नाम न लेने की क्या वजह हो सकती है?
जवाब: चीन का नाम लिए बगैर पीएम मोदी ने चीन को साफ संदेश दे दिया। यह तो उनके भाषण पर चीन की प्रतिक्रिया से ही विदित है। यदि किसी देश का नाम लिए बगैर संदेश उस तक पहुंचाया जा सकता है तो फिर उसका नाम लिए जाने की आवश्यता ही क्या है। लद्दाख के दौरे से दो हफ्ते पूर्व हालांकि प्रधानमंत्री ने सर्वदलीय बैठक में अपने संबोधन से भ्रामक स्थिति पैदा कर दी थी। उनके 19 जून के बयान ने चीन को दुष्प्रचार का मौका दिया। चीन की सरकारी मीडिया ने इसे इस तरह प्रसारित किया कि पीएम मोदी चीन के साथ आगे कोई टकराव नहीं चाहते। लद्दाख जाकर उन्होंने अपनी इस गलती में सुधार किया।
सवाल: भारत ने हाल ही में चीनी ऐप पर प्रतिबंध सहित कुछ अन्य व्यापारिक प्रतिबंध लगाए हैं। भारत की रणनीति को आप कैसे देखते हैं?
जवाब: भारत को चीन की आक्रामकता का हर मोर्चे पर जवाब देना चाहिए, चाहे वह आर्थिक हो या कूटनीतिक। भारत को चीन के खिलाफ वैश्विक स्तर पर कूटनीतिक आक्रामकता दिखानी चाहिए। दुर्भाग्यवश, हांगकांग के मुद्दे पर भारत की ओर से दिया गया बयान बेहद कमजोर रहा। चीन को भारत से व्यापार अधिशेष के रूप में सालाना लगभग 60 अरब डॉलर मिलते हैं। हालांकि भारत में उसका प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बहुत कम है। चीन ने निवेश की बजाय अपने सामान को भारत में खपाने को ज्यादा तवज्जो दी। भारत के नीति निर्धारकों को यह बात कब समझ आएगी कि चीन को भारत की अत्यधिक जरूरत है, न कि भारत को चीन की।
सवाल: भारत को अमेरिका सहित अन्य सहयोगी देशों पर कितना निर्भर रहना चाहिए। क्या युद्ध की स्थिति में वे भारत का साथ देंगे?
जवाब: भारत पश्चिम के देशों से कूटनीतिक समर्थन की उम्मीद तो कर सकता है लेकिन सैन्य समर्थन की नहीं। भारत और अमेरिका सामरिक साझेदार हैं, न कि सैन्य साझेदार। अमेरिका से भारत की सैन्य साझेदारी होती भी है तो इससे बहुत अंतर नहीं पड़ने वाला है। साल 2012 में जब चीन ने फिलीपीन से स्कारबोरो शोल छीना था तब अमेरिका ने कुछ नहीं किया जबकि दोनों देशों के बीच सैन्य सहयोग संबंधी समझौता है। कुछ शाब्दिक समर्थन के अलावा अमेरिका, चीन की सैन्य शक्ति के बारे में कुछ गोपनीय जानकारी ही भारत को मुहैया करा सकता है। भारत को खुद से ही चीन की आक्रामकता का जवाब देना होगा।
सवाल: मौजूदा संकट को खत्म करने के क्या विकल्प हो सकते हैं?
जवाब: चीन ने छल-कपट से अतिक्रमण करते हुए लद्दाख में यथास्थिति को बदल दिया है। भारत चाहता है कि यथास्थिति बरकरार रहे। इस बात की कम ही संभावना है कि चीन शांतिपूर्वक पीछे हटे। इस पृष्ठभूमि में भारत को ऐसे उपाय करने चाहिए कि चीन को उसकी आक्रामकता भारी पड़े। इसके लिए भारत को उसे आर्थिक और कूटनीतिक मोर्चे पर घेरना होगा। चीनी आक्रामकता की ओर दुनिया का ध्यान केंद्रित रखने के लिए भारत को इस सैन्य गतिरोध को लंबा खींचना चाहिए। साथ ही भारत को अपनी ‘वन-चाइना’ नीति समाप्त करनी चाहिए।