हम भारतीयों के लिए आत्मनिर्भरता के बहुत गहरे निहितार्थ हैं। प्राचीन भारतवर्ष की संस्कृति में आत्मज्ञान सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। आत्मज्ञान अर्थात स्वयं को पहचानना। स्वयं की पहचान होने पर आपकी दूसरों पर निर्भरता लगभग समाप्त हो जाती है। आत्मज्ञान से ही आत्मविश्वास उपजता है। स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति की महानता और वैभव का परिचय पूरे आत्मविश्वास से संसार को दिया, इसके पीछे उनका आत्मज्ञान था। उन्हें भली-भांति मालूम था कि एक भारतीय के रूप में वे कौन हैं और किस धरती पर उनका जन्म हुआ है! वे स्वावलंबन पर जोर देते थे। एक नई अर्थव्यवस्था विकसित करने के लिए प्रारंभ किए गए आत्मनिर्भर अभियान को सफल बनाने के लिए हमें प्राचीन भारत स्वावलंबन से सीखना होगा।
यह सिद्ध है कि पुरातन काल में भारत विश्व का मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट था और भारतीयों की उद्यमशीलता हथियाने के लिए ही यहां आक्रमण हुए। हम सबके लिए आत्मनिर्भर भारत का अर्थ उद्मम की शुद्ध भारतीय संस्कृति का पुनर्विकास होना चाहिए। हमें अपने भीतर के उद्यम का ज्ञान होना चाहिए। विश्व गुरु होने का यही प्रथम मापदंड है। एमएसएमई क्षेत्र के लिए आत्मनिर्भर भारत अभियान वरदान साबित हो सकता है। मैं कुटीर उद्योगों की गुणवत्ता में सुधार को एमएसएमई के विकास में सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण कदम मानता हूं क्योंकि इससे ही स्थानीय स्तर पर आर्थिकी पनपेगी।
स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी समय के साथ उत्पाद में गुणवत्ता की मांग बढ़ती जाती है। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों गुणवत्ता में जितने आत्मनिर्भर होते जाएंगे, उनके उत्पादों की बिक्री में उतनी ही बढ़ोतरी होगी। “लोकल के लिए वोकल” का वातावरण पैदा करने के लिए उद्यमियों को लॉकडाउन के इस समय का उपयोग करना चाहिए। यहां आत्मज्ञान का फार्मूला कारगर सिद्ध होगा क्योंकि एक उत्पादनकर्ता से बेहतर कोई नहीं जान सकता कि कमी कहां रह गई है और उसे किस तरह सुधारा जा सकता है।
स्थानीय बाजारों के लिए उत्पाद तैयार करते हुए गुणवत्ता में कमी को अनदेखा किया जाता है, अब इस सोच से बाहर आने की जरूरत है। स्वामी विवेकानंद से लेकर उनके अनुयायी वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक के विचार आत्मनिर्भरता की प्रक्रिया को आत्मविश्वास से जोड़ने का उद्देश्य रखते हैं। भारत में बने उत्पादों के प्रति भारतीयों में ही हीनता का भाव है, विदेशी प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के पहले स्थानीय उत्पादों को स्थानीय लोगों का दिल जीतना होगा। आत्मनिर्भरता और हीनता के मनोभाव में परस्पर विरोधाभास है। आत्मनिर्भर व्यक्ति को कभी हीनता का अनुभव नहीं होगा और हीन व्यक्ति आत्मनिर्भरता के बारे में अधिक विचार नहीं करेगा। हीन भावना से ग्रस्त व्यक्ति के विचार भी दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं।
आज के भारत और पुरातन काल के भारत में मनोभाव का एक बड़ा अंतर है। रामायण-महाभारत जैसे महाकाव्य भारत की आत्मनिर्भरता के चरम को बताते हैं। इनमें जिस प्रकार के रहन - सहन, महलों, स्थलों, वाहनों, धातुओं औऱ शस्त्रों का वर्णन किया गया है वे उस समय से आगे के प्रतीत होते हैं और संभवत: आज हम उनका ही आधुनिक रूप देख रहे हैं। ध्यान देने योग्य तथ्य है कि दोनों ही महाकाव्य भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल का उल्लेखित करते हैं लेकिन इनमें कहीं नहीं लिखा है कि भारतीय वैभव के लिए अन्य देशों से किसी प्रकार की सहायता ली जाती थी, यानी उस काल में आधुनिक और अविष्कारी कही जानेवाली सारी वस्तुएं स्वदेशी थीं।
महाभारत में आत्मज्ञान और आत्मनिर्भरता को विभिन्न प्रसंगों से दर्शाया गया है। जैसे सारथी संजय ने अपने राजा धृतराष्ट्र को उनके बराबर बैठकर महाभारत के युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाया था। यह एक उदाहरण है कि आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति दूर तक देख सकता है और यह उसकी आत्मनिर्भरता का प्रतीक है कि एक सारथी होकर भी उसने अपने गुणों से राजा का मित्रवत व्यवहार पाया। दूसरी ओर धृतराष्ट्र राजा होकर भी आत्मनिर्भर नहीं थे क्योंकि उन्होंने पुत्र मोह में आत्मज्ञान का त्याग कर दिया था, इसलिए वे दिव्यदृष्टि प्राप्त करने का साहस भी न हासिल कर पाए क्योंकि उनमें हीनता थी। आत्मनिर्भर बनने के लिए हमें संजय की दृष्टि रखनी होगी और धृतराष्ट्र की गलतियों से सबक लेना होगा।
वर्षों की परतंत्रता ने हमारा आत्मविश्वास छीना और स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भी लंबे समय तक अपने विकास के लिए हम विदेशों पर निर्भर रहे। यह दूसरों के घऱ से रोशनी के अपने घर का अंधेरा दूर करने जैसा है। आत्मनिर्भरता की भावना हममें आत्मज्ञान से ही आएगी। हमें सोचना होगा क्यों विदेशी ताकतों ने हम पर हमले किए? हमारी संस्कृति और वैभव के प्रतीकों को नष्ट करने का काम किया। नालंदा विश्वविद्यालय का विध्वंस और उसके पुस्तकालय को जलाकर एक विदेशी लुटेरे का घृणित कार्य किया जबकि इसी विश्वविद्यालय को चीन के विद्वान ह्वेन सांग ने विश्व का सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया था। भारत का ज्ञान नष्ट कर यहां के मूल निवासियों का आत्मविश्वास तोड़ने और उन्हें परनिर्भर बनाने का खेल चलता ही रहा, हर विदेशी आक्रमणकारी ने यही किया। बहुत से लुटेरे, आतंकी यह करने के बाद यहां अपना राज्य स्थापित करने में सफल रहे। उन्होंने हमारी आत्मनिर्भरता छीनकर हमारी कला हथिया ली, हमारा अविष्कारी व्यवहार हर लिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए भारतीय शिक्षा पद्धति में आमूल-चूल बदलाव किए। लार्ड मैकाले का शिक्षा मॉडल भारत की आत्मनिर्भरता छीन लेने का षड्यंत्र था। मुझे खुशी है कि मोदी सरकार नई शिक्षा नीति से शिक्षा व्यवस्था में आवश्यक व्यवहारिक सुधार कर रही है। भारत की गुरु-शिष्य परंपरा व्यवहारिक ज्ञान के आधार पर नागरिक तैयार करती थी। गुरु का काम अपने शिष्य को उसकी प्रतिभा की दिशा में अग्रसर करना होता था।
शिक्षा के समानांतर ही वैदिक युग से भारत में एक विकसित आर्थिक व्यवस्था रही है, उस काल में भी टैक्स लिया जाता था जिसका उपयोग जनहित के कार्यों में किया जाता था। सिंधु सभ्यता जो व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए सनातनी सभ्यता का एक रूप है, एक उन्नत व्यापारिक व्यवस्था थी। हमारी सभ्यता में शहरीकरण की स्थापना के समय दूसरी व्यवस्थाओं के लिए यह केवल कल्पना थी। अनुमान लगाइए उस दौर में भारत की मुद्रा का मूल्य दूसरों से कितना अधिक रहा होगा?
गीता में कर्म को प्रधानता देने का उपदेश है। एमएसएमई क्षेत्र इस दर्शन को अपना सिद्धांत बना सकता है क्योंकि कोरोना से बनी अनिश्चितता से वैश्विक आर्थिक संकट निरंतर बढ़ रहा है। आयात-निर्यात की सीमा सिमट गई है। चीन की छवि बिगड़ी है। अमेरिका समेत अनेक विकसित देश उससे व्यापार कम करना चाहते हैं। चीन की विशेषता उसकी उत्पादन क्षमता है और वह विश्व के किसी अन्य देश को अपना विकल्प नहीं बनने देना चाहता। कोरोना की आपदा में भारत के लिए यही अवसर है कर्मप्रधान बनकर चीन को मात देने का।
अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए जारी किए राहत पैकेज में सकल घरेलू उत्पाद में 29 फीसदी का योगदान देनेवाले एमएसएमई क्षेत्र के लिए बड़ी राहत है परंतु उपायों का सदुपयोग तभी संभव है जब हमें अपनी मौलिक गुणवत्ता और सांस्कृतिक विरासत का ज्ञान हो। विदेशों उत्पादों की नकल कर नए भारत की पहचान नहीं गढ़ी जा सकती। सांस्कृतिक समृद्धि भारत की अर्थव्यवस्था का आधार बन सकती है।
लेखक: नीरज सिंह