सीबीआई की विशेष अदालत ने आखिरकार अपना फैसला सुना ही दिया। जस्टिस यादव का कार्यकाल करीबन एक साल बढ़ाया गया था, ताकि वो फैसला सुना सकें। नहीं तो मामला और खींचता और इंसाफ की गुहार लगाने वालों को लंबा इंतजार करना पड़ता। कोर्ट के फैसले पर हर पक्ष कि अपनी-अपनी दलील है। राम भक्तों ने कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुये मिठाई बांटी और जय श्री राम का जयघोष बुलंद किया। तो मुस्लिम पक्षकारों ने इसे इंसाफ का हनन बताते हुये हाई कोर्ट में अपील करने की पेशकश की है।
बिहार चुनावों के ठीक पहले आये सीबीआई विशेष कोर्ट के इस फैसले पर राजनीति कितनी होगी? इसपर फिलहाल टिप्पणी करना जल्दबाजी है। लेकिन इतना तो तय है कि इस फैसले पर राजनीति की एक पूरी बिसात बिछेगी और एक बार फिर ध्रूविकरण कि आग देश की जनता को जलायेगी।
रामजन्म भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को मानने में देश के हर तबके को ज्यादा परेशानी नहीं हुई, क्योंकि आस्था के सामने हर हिन्दुस्तानी अपनी आपत्तियों को वापस ले ही लेता है। लेकिन सीबीआई कोर्ट के फैसले में आस्था का मसला नहीं जुडा था। सीबीआई की कोर्ट ये तय कर रही थी, कि 6 दिसबर 1992 को क्या किसी साजिश के तहत विवादित ढांचे को गिराया गया था? अगर हां, तो उस साजिश में कौन - कौन शामिल थे - जो जिम्मेदार लोग थे, उन्हें क्या सजा दी जाने वाली थी? जो फैसला सामने आया है वो दो हजार पन्नों का है। इस विस्तरित फैसले में कई तरह कि बातें होंगी, लेकिन जो मुख्य बात है, वो ये - कि संध परिवार और भारतीय जनता पार्टी से जुडे किसी भी व्यक्ति ने विवादित ढांचे के विध्वंश में कोई योगदान नहीं दिया। राम भक्तों के बीच अराजक तत्व मौजूद थे, और मौका देखकर, उन अराजक तत्वों ने विवादित ढांचे का विध्वंश किया। किसी राम भक्त ने राम के नाम पर 6 दिसंबर 1992 को कोई हिंसा नहीं की।
फैसले के बाद कुछ विचारविर्मश के बिंदू सामने आते हैं
पहला - क्या विवादित ढांचे को किसी ने नहीं गिराया।
दुसरा - जिन अराजक तत्वों को विवादित ढांचा गिराने के लिए कोर्ट ने भी जिम्मेदार माना है, वो दरअसल थे कौन ?
तीसरा - राज्य में उस वक्त बीजेपी की सरकार थी और केंद्र में कांग्रेस की, क्या दोनो सरकारों की इंटेलिजेस के पास इन अराजतक तत्वों के बारे में कोई जानकारी नहीं थी ?
चौथा - 6 दिसंबर की दोपहर के बाद अयोध्या में लाठ्ठी चार्ज किया गया था, तो क्या उस वक्त भी राज्य पुलिस और केंद्रिय बलों को राम भक्तों के बीच, एक भी असमाजिक तत्व नहीं मिला ?
पांचवा - 49 आरोपियों में से ना जाने कितनों ने, कई मौके पर कहा है कि विवादित ढांचे के गिरने से उन्हें बडी खुशी हुई। जिस कार्य को इनमें से किसी ने भी नहीं किया, उस कार्य पर खुशी तो ठीक है, राजनीतिक फायदा कैसे और क्यों उठाया, जब कुछ किया ही नहीं, तो फिर वोट किस आधार पर मांगे, क्या ये देश कि जनता के साथ छलावा नहीं था ?
और आखिरी, यानि छठा - राम का काम किया तो देश के डरना कैसा ? राम के नाम पर शहीद होने वालों ने 1989 में उफ तक नहीं किया था, तो फिर राम के नाम पर अगर राजनीति का शिकार हो भी जाते, तो क्या होता, जेल ही तो जाते ? राम का नाम तो बुलंद रहता।
शायद आज सवालों के घेरे में वे नहीं है, जिन्हें अदालत ने बरी किया है। क्योंकि अदालती फैसले, सबूत के आधार पर किये जाते हैं। सवालों के घेरे में आज भारत की जांच प्रणाली है, जांच एजेंसियां हैं, कानून पर आंख बंद करके भरोसा करने वाला विश्वास है और अंत में हमारा राजनीतिक अमला है, जिसने लोगों के विश्वास के साथ हमेशा खेला है। 6 दिसंबर 1992 के बाद भी तीन सालों तक कांग्रेस की नरसिंहराव कि सरकार थी। फिर ढाई सालों तक दो गठबंधन कि सरकारें रही। 6 सालों के लिए उसके बाद वाजपेयी की एनडीए सरकार और फिर दस सालों के लिए कांग्रेस की अगुवाई वाली मनमोहन सरकार। बीते छह सालों में मोदी सरकार के दौरान सुनवाई ने तेजी पकड़ी और अब फैसला सामने है। राजनीति के हर आयाम को विभिन्न राजनीतिक दलों ने खुब भूनाया। कांग्रेस ने कहा, गुनाहगारों को सजा दिलवा कर रहेंगे। एनडीए ने मामले पर टालना ही बेहतर समझा। गठबंधन कि सरकारों ने दोमुंहापन का सहारा लिया। किसी भी सरकार ने ये माना ही नहीं कि जांच कर रहीं एजेंसियों को तो बंध रखा है, वो तो वहीं करेंगी तो हम कहेंगे। कहते भी कैसे, वोट का सवाल जो ठहरा। अगर केंद्रिये जांच एजेंसी ने इनमें से भी किसी सरकार के मातहत ढंग से जांच की होती, तो आज हम ना तो सरकारों पर और ना ही जांच एजेंसियों को सवालों के घेरे में लेते।
जनाब, जब कत्ल हुआ ही नहीं तो 28 सालों तक किस कातिल को ढुंढ रहे थे। अदालत, जनता और वकिलों का इतना वक्त क्यों बर्बाद किया। 6 दिसंबर 1992 के साल भर के भीतर कह देते, भीड ने किया - नहीं जानते किसने और किसके उकसावे पर विवादित ढांचा ढहा। बात खत्म हो जाती। जनता का विश्वास बना रहता और कम से कम हर बात पर शक करने की जो परिपाटी सी बन गई है, उससे तो बच जाते।
खैर, सीबीआई की कौन सी जांच पर कहां कोई यकिन भी करता है। HMV रिकोर्ड हुआ करती थी हमारे जमाने में, गानों कि रिकोर्डिंग वाली मशहूर कंपनी - उसका फूल फार्म है, His Master’s Voice.
नोट- लेखक इंडिया टीवी के कंस्लटिंग एडिटर हैं। लेख में लिखे गए विचार उनके निजी हैं।