मूल रूप से बिहार के मिथिलांचल क्षेत्र से आने वाले आशुतोष महाराज ने पंजाब को अपनी कर्मभूमि बनाई, जब पंजाब आतंकवाद की आग में जल रहा था। ज्ञान की तलाश में कई गुरुओं का साक्षात्कार कर आशुतोष महाराज ने पाया कि वर्तमान में कोई भी गुरु पूर्ण नहीं हैं। अच्छे और सिद्ध गुरु की तलाश में वे कई धर्मगुरुओं के बीच रहे भी और उनसे शास्त्रार्थ भी किया, लेकिन उनकी ज्ञान पिपासा को कोई शांत नहीं कर सका।
सच्चे गुरु की तलाश करते-करते वे हिमालय की कंदराओं में चले गए और वहां 13 साल तक कठोर साधना की। हठयोग और क्रिया योग का ज्ञान उन्हें हिमालय की कंदराओं में निवास करने वाले सिद्ध महापुरुषों से ही मिला। ब्रह्मज्ञान की जिस तलाश में उन्होंने हिमालय में कठोर तपस्या की थी, उसकी प्राप्ति होते ही, दुनिया को इस ज्ञान से परिचय कराने हेतु हिमालय से निकलकर वे भारत भ्रमण पर निकले।
उन्होंने पूरे पंजाब का भ्रमण किया और पाया कि लोग अंदर से अशांत हैं, जिसके कारण समाज और राष्ट्र को विध्वंस के रास्ते पर ले जाने के लिए हथियार और नशे का सहारा ले रहे हैं। सन् 1983 में कभी पैदल तो कभी साइकिल से आशुतोष महाराज ने पंजाब के गांव-गांव में जाकर लोगों को यह समझाना शुरू किया कि जब तक मनुष्य अंदर से शांत नहीं होगा, तब तक समाज में अशांति इसी तरह से फैलती रहेगी।
आशुतोष महाराज ने 1983-84 में नूरमहल में आश्रम की स्थापना की और ‘ब्रह्मज्ञान’ के द्वारा विश्व शांति के अपने अभियान को आगे बढ़ाया। सन 1991 में ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान’ की स्थापना हुई और दिल्ली के पीतमपुरा में 1997 में इसके मुख्यालय का निर्माण हुआ।
दिल्ली के ही पंजाब खोड़ गांव में ‘दिव्यधाम’ के रूप में एक अन्य बड़े आश्रम का निर्माण किया गया है, जहां प्रत्येक महीने के पहले रविवार को भव्य सत्संग का आयोजन होता है, जिसमें देश भर से भाग लेने लोग दिल्ली आते हैं। आज देश के हर छोटे-बड़े जिले में ‘दिव्य ज्योति जागृति संस्थान’ का भवन है, लेकिन इसका मुख्यालय दिल्ली और मुख्य केंद्र नूरमहल आश्रम ही है।