स्वतंत्रता दिवस एक ऐसा मौक़ा होता है जब हम हमारे देश की आज़ादी के लिए संघर्ष करने और क़ुर्बान होने वाले स्वतंत्रता सैनानियों को याद करते हैं। दरअसल हम उन्हें याद नहीं करते, वे तो हमारे ज़हन में सदियों से नक्श हैं क्योंकि इन लोगों के बारे में हमेशा लिखा-पढ़ा जाता रहा है। इसीलिए स्वतंत्रता संग्राम का ज़िक्र होते ही कई नाम हमारे ज़हन में कौंध जाते हैं लेकिन दुर्भाग्य से कुछ ऐसे भी नाम हैं जिनका योगदान किसी से कम नहीं लेकिन फिर भी वे हमारे लिए बेनाम-बेचेहरा बने हुए हैं। रानी गाइदिनल्यू, स्वतंत्रता संग्राम की गुमनाम नायिका
वनवासियों को आज़ादी प्यारी होती है और उन्हें किसी बंधन में जक़डा नहीं जा सकता है। इन्ही वनवासियों ने सबसे पहले जंगलों से ही विदेशी आक्रांताओं एवं दमनकारियों के विरुद्ध संघर्ष किया था। प्रकृति प्रेमी वनवासी क्रांतिकारियों की लंबी शृंखला हैं। कई परिदृश्य में छाऐ रहे और कई अनाम रहे। ऐसे ही महान क्रांतिकारी हुए हैं अल्लूरी सीताराम राजू। उनका जन्म 4 जुलाई 1897 को विशाखापट्टणम जिले के पांड्रिक गांव में हुआ। उनके पिता अल्लूरी वेंकट रामराजू ने बचपन से ही सीताराम राजू को यह बताकर क्रांतिकारी संस्कार दिए कि अंग्रेज़ों ने ही हमें ग़ुलाम बनाया है और वे हमारे देश को लूट रहे हैं। सीताराम राजू के ज़हन में पिता की ये बात घर कर गई।
राजू के क्रांतिकारी साथियों में बीरैयादौरा का नाम भी आता है जिनका अपना अलग वनवासी संगठन था। इस संगठन ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ युद्ध छ़ेड रखा था। अंग्रेज बीरैयादौरा को फांसी पर लटका देते लेकिन तब तक सीताराम राजू का संगठन बहुत बलशाली हो चुका था। पुलिस राजू से थरथर कांपती थी। वह ब्रिटिश सत्ता को खुलेआम चुनौती देता था। सीताराम राजू के संघर्ष और क्रांति की सफलता का एक कारण यह भी था कि वनवासी अपने नेता को धोखा देना, उनके साथ विश्वासघात करना नहीं जानते थे। कोई भी सामान्य व्यक्ति मुखबिर या गद्दार नहीं बना। आंध्र के रम्पा क्षेत्र के सभी वनवासी राजू को भरसक आश्रय, आत्मसमर्थक देते रहते थे। स्वतंत्रता संग्राम की उस बेला में उन भोलेभाले बेघर, नंगे बदन और सर्वहारा समुदाय ने अंग्रेजों के क़ोडे खाकर भी राजू के ख़िलाफ़ मुख़बरी नहीं की।
सीताराम राजू गुरिल्ला युद्ध करते थे और नल्लईमल्लई पहा़डयों में छुप जाते थे। गोदावरी नदी के पास फैली पहा़डियों में राजू व उसके साथी युद्ध का अभ्यास करते और आक्रमण की रणनीति बनाते थे। ब्रिटिश अफसर राजू से लगातार मात खाते रहे। आंध्र की पुलिस के नाकाम होने के बाद केरल की मलाबार पुलिस के दस्ते राजू के लिए लगाए गए। मलाबार पुलिस फोर्स से राजू की कई मुठभ़ेडें हुईं लेकिन मलाबार दस्तों को मुंह की खानी प़डी।
6 मई 1924 को राजू के दल का मुकाबला सुसज्जित असम राइफल्स से हुआ जिसमें उसके साथी शहीद हो गए लेकिन राजू बचा गया। ईस्ट कोस्ट स्पेशल पुलिस उसे पहा़डयों के चप्पेचप्पे में खोज रही थी। 7 मई 1924 को जब वह अकेला जंगल में भटक रहा था, तभी फोर्स के एक अफसर की नज़र राजू पर पड़ी गई। उसने राजू का छिपकर पीछा किया हालंकि वह राजू को पहचान नहीं सका था क्योंकि उस समय राजू ने लंबी द़ाढी ब़ढा ली थी। पुलिस दल ने राजू पर पीछे से गोली चलाई। राजू जख्मी होकर वहीं गिर पड़ो। तब राजू ने ख़ुद अपना परिचय देते हुए कहा कि ‘मैं ही सीताराम राजू हूं’ गिरफ्तारी के साथ ही यातनाएं शुरू हुई। अंततः इस महान क्रांतिकारी को नदी किनारे ही एक वृक्ष से बांधकर गोली मार दी गई।