सियासत में ‘सोनिया’ होने का मतलब है, न चाहते हुए भी सफल राजनीति करना। सोनिया गांधी ने ये बखूबी किया। लेकिन, राजनीति उनकी पहली पसंद नहीं थी। हालांकि, ये बात और है कि भारत के सबसे बड़े सियासी परिवार के वारिस राजीव गांधी को वो बहुत पसंद करती थीं। राजीव गांधी से उनका प्रेम पहले उन्हें भारत लेकर आया, फिर गांधी परिवार की बहू बनाया और फिर तमाम अनचाही परिस्थियों के बीच वो कांग्रेस अध्यक्ष बन गईं।
इंदिरा गांधी ने कांग्रेस को जिस मजबूती के साथ आगे बढ़ाया था वो राजीव गांधी की हत्या के बाद कमजोर होने लगी थी। 1991 में राजीव गांधी की हत्या हुई और 1998 तक केंद्र से कई राज्यों तक कांग्रेस की फैली हुई जड़ें उखड़ने लगी थी। कांग्रेस के चन्द्र शेखर, पी. वी. नरसिंह राव, एच. डी. देवेगौड़ा और इंदर कुमार गुजराल से होते हुए पीएम की कुर्सी पर अटल बिहारी वाजपेयी विराजमान हो चुके थे। कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं ने अपनी अलग क्षेत्रीय पार्टी बना ली थी।
इन तमाम परिस्थितियों के बीच कांग्रेस के सामने खुद को दोबारा खड़ा करने की चुनौती थी। जिसे न चाहते हुए भी सोनिया गांधी से स्वीकार किया। उन्होंने 1998 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद को संभाला और पार्टी को एक बार फिर से नया अस्तित्व दिया। हालांकि, वो 1991 में जब राजीव गांधी की हत्या हुई तब भी कांग्रेस अध्यक्ष बन सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया था। कहते हैं कि वो राजनीति में नहीं आने के लिए प्रतिज्ञबद्ध थीं, जिसे बाद में उन्हें तोड़ना पड़ा।
सोनिया गांधी की अध्यक्षता में कांग्रेस ने केंद्र में 2 बार सरकार बनाई। पहली बार 2004 में और दूसरी बार 2009 में, दोनों ही बार कांग्रेस की ओर से डॉ मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनाया गया। जब अटल बिहारी वाजपेयी की लोकप्रियता को मात देकर 2004 में सोनिया गांधी ने कांग्रेस को जीत दिलाई और केंद्र में सत्ता हासिल की, तब लोगों ने उनकी छवि में इंदिरा गांधी को तलाशना शुरू कर दिया था।
वास्तविक जीवन में किसी के गुजरजाने की क्षति को कोई दूसरा कभी भर नहीं सकता, लेकिन राजनीति में कभी-कभी ऐसा संभव हो जाता है। इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस में जब ‘सोनिया’ दौर शुरू हुआ तब राजनीति इसी राह से गुजरी थी। सोनिया में इंदिरा और राजीव की सियासत की छलक दिखने लगी थी। फिलहाल, सोनिया ने अब अपनी गद्दी राहुल गांधी को सौंप दी है।