देश में जब भी कोई बेटी या महिला दरिन्दगी की शिकार होती है तो समाज से एक आवाज़ आती है 'मामले की सुनवाई फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट में हो।' समाज के भीतर से आती इस आवाज़ का एक ही मक़सद होता है, आरोपी को जल्दी से जल्दी फांसी की सज़ा हो। इस सुर से सरकारें भी अपना सुर मिला देतीं हैं, क्योंकि मामला बलात्कार का होता है।
'द हिन्दू' के मुताबिक, 11वें वित्त आयोग की सिफ़ारिश पर 1 अप्रैल 2001 में देश के सबसे पहले फास्ट ट्रैक कोर्ट (एफ़टीसी) की शुरुआत हैदराबाद के सिटी सिविल कोर्ट से हुई थी। इस कोर्ट का उद्घाटन सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस बीएन किरपाल ने किया था। उद्घाटन भाषण में जस्टिस बीएन किरपाल ने न्यायिक प्रक्रिया में लेट-लतीफ़ी लेकर जो उस वक़्त कहा था वो आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उस वक़्त था। जस्टिस किरपाल ने कहा था ''We are still in the bullock cart age as far as court procedures are concerned.'' मतलब कहने का आशय है कि जहां तक कोर्ट के कार्यप्रणाली के सम्बन्ध में बात करें तो हमारी स्थिति उसी दौर जैसी है जब बैलगाड़ी हुआ करती थी। आगे उन्होंने कोर्ट को सूचना प्रौद्योगिकी से जोड़ने की भी बात कही थी। जैसे वीडियो कांन्फ्रेंसिग के ज़रिए गवाही वगैरह-वगैरह। एफ़टीसी का गठन ज़िला स्तर पर होता है।
11वें वित्त आयोग की सिफ़ारिश पर 509.90 करोड़ की लागत से 1734 एफ़टीसी बनाए जाने थे। लेकिन 31 मार्च 2005 तक मात्र 1562 एफ़टीसी ही कार्यरत थे। पांच साल के लिए बनाए गए इस कोर्ट का मक़सद ज़िला न्यायालयों में विचारधीन क़ैदियों और लम्बे समय से लम्बित पड़े मुक़दमों का निपटारा करना था। उम्मीद जताई गई थी कि महीने भर में एक कोर्ट 14 मुक़दमों का निपटारा करेगा। मार्च 2005 से मार्च 2010 तक के लिए फिर से इस कोर्ट की कार्यावधि को बढ़ा दिया गया। मार्च 2010 के बाद से फ़िर से एक साल के लिए इस कोर्ट की कार्यावधि को बढ़ा दिया गया। मार्च 2011 आते-आते मात्र 1192 एफ़टीसी कार्यरत रह गए थे। केन्द्र सरकार ने वित्तीय सहायता प्रदान करना बन्द कर दिया। लेकिन कुछ राज्य सरकारों ने अपने ख़र्च से चालू रखा।
साल 2012 में 16 दिसम्बर की आधी रात को दिल्ली की सड़क पर निर्भया जब दरिन्दों का शिकार बनी तो एक बार फिर से एफ़टीसी की मांग ज़ोर-शोर से उठी। तब से लेकर अब तक बलात्कार के मामले में एफ़टीसी में सुनवाई की मांग होती है, ताकि जल्दी से जल्दी दोषी को फ़ांसी की सज़ा हो जाए। लेकिन भारतीय क़ानून में ऐसा सम्भव नहीं है। यदि एफ़टीसी फ़ांसी की सज़ा सुना भी देता है तो आरोपी के पास हाईकोर्ट, हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बाद भी, राष्ट्रपति के पास आरोपी दया याचिका दायर कर सकता है।
उदाहरण के लिए निर्भया बलात्कार काण्ड को ले लेते हैं। सभी 6 आरोपियों का मामला एफ़टीसी में चला। सुनवाई के दौरान ही एक आरोपी ने तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर ली। 13 सितम्बर 2013 को चार दोषियों को फांसी की सज़ा सुनाई और नाबालिग को तीन साल की अधिकतम सज़ा सुनाकर सुधार केन्द्र में भेज दिया। नाबालिग अपनी सज़ा पूरी करके आज़ाद हो गया। 13 मार्च 2014 को दिल्ली हाईकोर्ट ने भी फांसी की सज़ा को बरकरार रखा। 5 मई 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फ़ैसला सुनाते हुए दोषियों की मौत की सज़ा को बरकरार रखा। 9 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने तीन आरोपियों की पुनर्विचार याचिका को ख़ारिज कर दिया। हालांकि अब भी इन दोषियों के पास फांसी से पहले राष्ट्रपति के सामने दया याचिका दाखिल करने का विकल्प है। तो देखा आपने! इतने साल बाद भी निर्भया के आरोपी को फांसी की सज़ा नहीं मिली है।
इसी केस में एक दूसरा पहलू ये भी है कि कुछ लोग फ़ांसी की सज़ा का विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि 115 देशों ने मौत की सज़ा को ख़त्म कर दिया है। सभ्य समाज में इसका कोई स्थान नहीं है। फांसी देकर अपराधी को ख़त्म किया जा सकता है अपराध को नहीं। मौत की सज़ा जीने के अधिकार को छीन लेती है। ये दुर्लभतम से दुर्लभ अपराध की श्रेणी में नहीं आता।
14वें वित्त आयोग की सिफ़ारिश पर साल 2020 तक के लिए क़रीब 4100 करोड़ की लागत से 1800 एफ़टीसी बनाने का फ़ैसला लिया गया है। 30 जून 2018 की 'द प्रिन्ट' की रिपोर्ट है, जिसमें लिखा है कि अभी भी 60% एफ़टीसी का गठन होना बाकी है।कम से कम 15 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में एक भी एफ़टीसी नहीं है। महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले अपराध में जिन 10 शीर्ष राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों का नाम है, वहां बलात्कार जैसे मामलों की सुनवाई के लिए एक भी एफ़टीसी नहीं है। यहां तक दिल्ली जो महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में शीर्ष पर है, में मात्र 14 एफ़टीसी है। जबकि साल 2015 में केन्द्र सरकार के एक ज्ञापन के अनुसार 63 एफ़टीसी होना चाहिए। न्याय विभाग के अनुसार आधारभूत संरचना, ज़रूरी सामान और योग्य न्यायाधीश के बिना देशभर के एफ़टीसी में 6.5 लाख मुक़दमे विचाराधीन हैं।
ब्लॉग लेखक आदित्य शुभम इंडिया टीवी में कार्यरत हैं। इस लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।