हो सकता है आपको याद भी हो या याद नहीं भी है तो इस बात के लिए गूगल कर लीजिए कि साल 2014 से अब तक कितने ऐसे मौक़े आए जब लिखने और कहने वालों ने काले झण्डे दिखाए जाने को सही माना और कहा कि लोकतंत्र में विरोध की आवाज़/प्रक्रिया का सम्मान होना चाहिए। कुछ दिनों पहले बिहार के बेगूसराय से काले झण्डे दिखाए जाने की ख़बर आई थी, तब से लेकर आजतक मैं उन लोगों कि लेखनी और वक्तव्य को ढूंढ रहा हूँ, जो तब लोकतंत्र में काले झण्डे का समर्थन कर रहे थे। जानना चाहता हूं कि इस घटना में उन लोगों ने काले झण्डे का समर्थन किया है या नहीं। यदि मैं बात करूं अपने मित्रों की जो काले झण्डे के समर्थन में इन पांच सालों में अपनी आवाज़ बुलन्द किए, अब ख़ामोश हैं। कुछ तो ऐसे व्यवहार कर रहे हैं कि उनको पता ही नहीं है कि कन्हैया को काला झण्डा दिखाया गया है।
ख़ैर अब हम मुद्दे पर लौटते हैं। जैसा कि हम सब जानते ही हैं कि बेगूसराय से कन्हैया कुमार चुनाव लड़ रहे हैं। कन्हैया सीपीआई के उम्मीदवार हैं। इनका मुक़ाबला बीजेपी के नेता गिरिराज सिंह और राजद के तनवीर हसन से है। कन्हैया, प्रचार करने बेगूसराय के गढ़पुरा थाना के किसी क्षेत्र में गए थे। रोड-शो में कुछ लोगों ने उनको काले झण्डे दिखाए, जिसके बाद कन्हैया के कारकूनों (कार्यकर्ताओं) ने लाठी-डंडों से काले झण्डे दिखाने वालों की जमकर पिटाई की। इस दौरान किसी व्यक्ति ने मना किया तो लाठी-डंडे वालों ने मना करने व्यक्ति की उसी के घर में घुसकर पिटाई की। किसी तरह वहां मौजूद पुलिसकर्मियों ने मामले को शान्त किया। अब यहां आप कन्हैया के छात्र राजनीति से मुख्यधारा की राजनीति के सफ़र को याद कीजिए। आप पाएंगे कि मोदी सरकार की नीतियों के विरोध से ही कन्हैया का, देश की मुख्यधारा की राजनीति मे प्रवेश हुआ है। देशभर में कन्हैया खुलकर मोदी सरकार का विरोध करते रहे हैं, जिससे समाज के एक तबके को लगा कि कन्हैया एक बेहतर रहनुमा बन सकते हैं। मुख्यधारा के नेताओं से दीगर एक छवि तैयार हुई, जिसकी बदौलत आज वो चुनावी मैदान में हैं।
अब यहां दो तस्वीर आपके सामने है। दोनों में ‘विरोध’ है। पहले में आपने देखा कि सत्ता का विरोध करने वाले का विरोध है, तो दूसरे में सत्ता का विरोध है। अब यहां सवाल ये है कि क्या लोकतंत्र में विरोध की आवाज़ सिर्फ़ सत्ता पक्ष के लिए होता है? यदि बात सिर्फ़ पीएम नरेन्द्र मोदी को झण्डा दिखाए जाने के सन्दर्भ में ही करें तो, पिछले पांच सालों में ये स्थापित करने की कोशिश गई कि पीएम मोदी के जलसे में काले झण्डे ले जाने से रोकना या उसकी जांच करना, लोकतांत्रिक नहीं तानाशाही रवैया है। तो क्या इसी कसौटी पर कन्हैया और उनके कार्यकर्ताओं के कारनामे को नहीं कसा जाना चाहिए? या फिर तब काले झण्डे का समर्थन करने वाले अब इसलिए ख़ामोश हैं कि इस बार मामला कन्हैया का है। क्या लोकतांत्रिक प्रक्रिया व्यक्ति और पार्टी देखकर लागू होगी? कन्हैया तो अभी मुख्यधारा की राजनीति में प्रवेश ही किये हैं। अभी से ही लाठी-डंडों के ज़ोर पर सियासत कर रहे हैं तो बाक़ी नेताओं से दीगर कैसे हैं? देशभर के अलग-अलग हिस्सों से कन्हैया के समर्थन में बेगूसराय जाकर उनका प्रचार करने वाले ज़्यादातर लोग सोशल मीडिया पर बहुत सक्रिय हैं। लेकिन कोई भी कन्हैया और उनके कार्यकर्ताओं की करतूत पर बोल नहीं रहा है कि उन लोगों ने ग़लत किया या सही।
ब्लॉग लेखक आदित्य शुभम देश के प्रतिष्ठित न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं। इस लेख में व्यक्त उनके निजी विचार हैं।