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इसी चमन में ही हमारा भी इक जमाना था। यहीं कहीं कोई सादा सा आशियाना था।।
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हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते। वक्त की शाख से लम्हें नहीं तोड़ा करते।।
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दम लबों पर था दिलेजार के घबराने से। आ गई है जां में जां आपके आ जाने से।।
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कई घरों को निगलने के बाद आती है। मदद भी शहर के जलने के बाद आती है।।
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रात आधी से ज्यादा गई थी, सारा आलम सोता था। नाम तेरा ले ले कर कोई दर्द का मारा रोता था।।
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किसी को क्या पता था इस अदा पर मर मिटेंगे हम। किसी का हाथ उठ्ठा और अलकों तक चला आया।।
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जो चल सको तो कोई ऐसी चाल चल जाना। मुझे गुमां भी ना हो और तुम बदल जाना।।
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तेरी खुशी से अगर गम में भी खुशी न हुई। वो जिंदगी तो मुहब्बत की जिंदगी न हुई।।
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दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई। जैसे एहसान उतारता है कोई।।
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समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का। अकबर ये गजल मेरी है अफसाना किसी का।।
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आंखों में जल रहा है क्यूं बुझता नहीं धुआं। उठता तो है घटा-सा बरसता नहीं धुआं।।