Saturday, November 02, 2024
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Explainer: सुप्रीम कोर्ट ने दिया मुस्लिम महिला के गुजारा भत्ते पर फैसला, याद आ गया शाह बानो केस; जानें क्या हुआ था 4 दशक पहले

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को महिलाओं के भरण पोषण को लेकर एक ऐसा ऐतिहासिक फैसला दिया जिसने 1985 के शाह बानो केस की यादें ताजा कर दीं।

Edited By: Vineet Kumar Singh @VickyOnX
Updated on: July 11, 2024 8:28 IST
Shah Bano Case, Supreme court, Augustine George Masih- India TV Hindi
Image Source : PTI REPRESENTATIONAL सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ते को लेकर ऐतिहासिक फैसला दिया है।

नई दिल्ली: दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा-125 के तहत मुस्लिम महिला के भी अपने पति से गुजारा भत्ता की मांग कर सकने संबंधी सुप्रीम कोर्ट के बुधवार के फैसले ने 1985 के शाह बानो बेगम मामले में दिये गए शीर्ष अदालत के ऐतिहासिक निर्णय की यादें ताजा कर दीं। CrPC की धारा 125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण का भत्ता देने का विवादास्पद मुद्दा 1985 में राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आया था, जब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से यह फैसला सुनाया था कि मुस्लिम महिलाएं भी गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से तब मच गया था हंगामा

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की वजह से, मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को विशेष रूप से ‘इद्दत’ अवधि (3 महीने) से परे, भरण-पोषण की राशि देने के वास्तविक दायित्व को लेकर विवाद पैदा हो गया था। इस फैसले से पूरे देश में हंगामा मच गया था। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार ने संसद में फैसले का बचाव करने के लिए तत्कालीन केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान को मैदान में उतारा था। हालांकि, यह रणनीति उल्टी पड़ गई क्योंकि मुस्लिम धर्मगुरुओं और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने फैसले का कड़ा विरोध किया।

राजीव सरकार लाई थी मुस्लिम महिला अधिनियम

राजीव गांधी सरकार ने इसके बाद अपने रुख में बदलाव करते हुए सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध करने के लिए एक और मंत्री जेड. ए. अंसारी को मैदान में उतारा। इससे खान नाराज हो गए और उन्होंने सरकार छोड़ दी। खान इस समय केरल के राज्यपाल हैं। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन केंद्र सरकार स्थिति को ‘स्पष्ट’ करने के प्रयास के तहत मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 लाई, जिसमें तलाक के समय ऐसी महिला के अधिकारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 1986 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को 2001 में डेनियल लतीफी मामले में बरकरार रखा था।

बानो ने खटखटाया था सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा

शाह बानो केस में ऐतिहासिक फैसले में ‘पर्सनल लॉ’ की व्याख्या की गई तथा लैंगिक समानता के मुद्दे के समाधान के लिए समान नागरिक संहिता की जरूरत का भी जिक्र किया गया। इसने विवाह और तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं के लिए समान अधिकारों की नींव रखी। बानो ने शुरूआत में, अपने तलाकशुदा पति से भरण-पोषण राशि पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया था। बानो के पति ने उन्हें ‘तलाक’ दे दिया था। जिला अदालत में शुरू हुई यह कानूनी लड़ाई 1985 में सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधान पीठ के ऐतिहासिक फैसले के साथ समाप्त हुई।

‘भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प हमेशा उपलब्ध’

जस्टिस बी. वी. नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने बुधवार को दिए अपने फैसले में कहा कि शाह बानो मामले के फैसले में मुस्लिम पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी, जो तलाक दिए जाने या तलाक मांगने के बाद अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है, के प्रति भरण-पोषण के दायित्व के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा की गई है। कोर्ट ने कहा, ‘बेंच ने (शाह बानो मामले में) सर्वसम्मति से यह माना था कि ऐसे पति का दायित्व उक्त संबंध में किसी भी ‘पर्सनल लॉ’ के अस्तित्व से प्रभावित नहीं होगा और CrPC 1973 की धारा 125 के तहत भरण-पोषण मांगने का स्वतंत्र विकल्प हमेशा उपलब्ध है।’

‘दूसरी शादी करने वाले पति के साथ रहने से इनकार कर सकती है पत्नी’

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शाह बानो केस में दिये गए फैसले में यह भी कहा गया है कि यह मानते हुए भी कि तलाकशुदा पत्नी द्वारा मांगी जा रही भरण-पोषण राशि के संबंध में धर्मनिरपेक्ष और ‘पर्सनल लॉ’ के प्रावधानों के बीच कोई टकराव है, तो भी CrPC की धारा 125 का प्रभाव सर्वोपरि होगा। बेंच ने कहा कि 1985 के फैसले में स्पष्ट किया गया है कि पत्नी को दूसरी शादी करने वाले अपने पति के साथ रहने से इनकार करने का अधिकार है। (भाषा)

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