बिहार में जातिगत जनगणना का डेटा जारी किए जाने के कदम ने पूरे देश में नई सियासी सरगर्मी को पैदा कर दिया है। इस साल कई राज्यों में विधानसभा चुनाव और साल 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर जातिगत जनगणना एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनता दिखाई दे रहा है। विपक्षी दल अब बिहार के बाद पूरे देश में जातिगत जनगणना कराने की मांग कर रहे हैं। लेकिन इस बीच लोगों के मन में सबसे बड़ा सवाल है कि जातिगत जनगणना का असल मकसद क्या है? क्या केंद्र की भाजपा सरकार के पास इस मुद्दे की कोई काट है? क्या इस जनगणना से देश में एक बार फिर से मंडल बनाम कमंडल जैसी राजनीति शुरू हो सकती है? आइए जानते हैं इस एक्सप्लेनर में...
क्या निकला बिहार की जनगणना में?
बिहार सरकार ने राज्य में जातिगत जनसंख्या 13 करोड़ से ज्यादा बताई है। बिहार सरकार की ओर से जारी किए गए डेटा के अनुसार, राज्य में पिछड़ा वर्ग- 27.12 प्रतिशत, अत्यंत पिछड़ा वर्ग- 36.01 प्रतिशत, सामान्य वर्ग- 15.52 प्रतिशत, अनुसूचित जाति-19.65 प्रतिशत व अनुसूचित जनजाति-1.68 प्रतिशत है। राज्य की जनसंख्या में हिन्दू- 81.99 तो वहीं, मुस्लिम-17.70 प्रतिशत हैं। राज्य में ब्राह्मण-3.65 प्रतिशत, कुर्मी-2.87 प्रतिशत, यादव-14.26 प्रतिशत हैं। इसके अलावा भी अलग-अलग जातियों का डेटा जारी किया गया है।
क्या है जातिगत जनगणना?
जातिगत जनगणना का मतलब भारत की जनसंख्या का जातिवार विवरण है। इसमें सभी धर्म, वर्ग और जातियों का डेटा शामिल होता है। बता दें कि आखिरी बार जातिगत जनगणना 92 साल पहले साल 1931 में की गई थी। आजाद भारत की पहली जनगणना (1951) के बाद से अब तक केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति से जुड़े लोगों को जाति के नाम पर वर्गीकृत किया गया है। इसके बाद से अबतक सरकारें जाति के आधार पर देश की जनगणना कराने या इसका डेटा जारी करने से परहेज करती रही है।
क्या है इसका मकसद?
बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने कहा है कि जातिगत जनगणना में मिले वैज्ञानिक आंकड़ों के आधार पर सरकार कल्याणकारी योजनाएं लाने का प्रयास करेगी। दरअसल, बीते कई समय से विभिन्न दलों का दावा है कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का असल लाभ उन लोगों तक पहुंचना जरूरी है जो अब तक वंचित हैं। उनका तर्क है कि जातिगत जनगणना के माध्यम से ही सभी को असल लाभ मिल सकेगा। इसके डेटा से ये बात भी सामने आएगी कि देश में किसकी कितनी संख्या है और संसाधनों पर किसकी ज्यादा हिस्सेदारी है।
क्या होगा असर?
बिहार सरकार की ओर से जारी किए गए जातिगत जनगणना के बाद अब विपक्षी दल अन्य राज्यों में भी इसी तरह की जनगणना की मांग कर रहे हैं। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने भी कहा है कि भारत के जातिगत आंकड़े जानना जरूरी है। जितनी आबादी, उतना हक-ये हमारा प्रण है। ऐसे में तर्क दिए जा रहे हैं कि सरकारें इस जनगणना के बाद आरक्षण व्यवस्था में भी बदलाव कर सकती है। विभिन्न वर्गों और नेताओं द्वारा आबादी के हिसाब से आरक्षण देने की मांग आने की संभावना भी जताई जा रही है।
क्या फिर होगा मंडल बनाम कमंडल?
1990 के दौर में एक ओर भाजपा की ओर से राम मंदिर आंदोलन की हवा बनाई जा रही थी। इस दौरान तत्कालीन पीएम वीपी सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, ओबीसी वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण दे दिया था। इस कदम को मंडल बनाम कमंडल की राजनीति कहा गया था। जानकार मानते हैं कि देश के केंद्र की सत्ता में बैठी मोदी सरकार अभी राष्ट्रवाद व हिंदुत्व के दम पर सरकार में बनी हुई है। भाजपा को सत्ता में लाने में ओबीसी वर्ग ने बड़ी भूमिका निभाई है। बीते कुछ समय से पार्टी का ओबीसी वर्ग में वोट बैंक काफी बढ़ा भी है। ऐसे में विपक्ष भी बार-बार ओबीसी आरक्षण और जातिगत जनगणना के मुद्दे को हवा दे रहा है। विपक्ष को उम्मीद है कि इस मुद्दे पर भाजपा को आसानी से घेरा जा सकता है।
क्या भाजपा के पास है कोई काट?
जातिगत जनगणना भाजपा के लिए काफी जटिल मुद्दा बन गया है। विपक्ष इस मुद्दे के बहाने मोदी सरकार को बैकफुट पर लाने की लगातार कोशिश में लगा हुआ है। हालांकि, केंद्र की भाजपा सरकार भी शांत नहीं बैठी है। हाल के दिनों में ये भी चर्चा है कि सरकार ओबीसी वर्ग के उप-वर्गीकरण के संबंध में 2017 में गठित की गई जस्टिस रोहिणी आयोग की रिपोर्ट पर विचार कर सकती है। रिपोर्ट की मानें तो इस आयोग का मकसद सभी अन्य पिछड़ी जातियों की पहचान कर के उन्हें उप-श्रेणियों में कैटेगराइज करने का है। इस रिपोर्ट में ओबीसी आरक्षण कोटा के न्यायसंगत और समावेशी वितरण से संबंधित बातों पर जोर दिया गया है।