मोटापा कोई कलंक नहीं है और अगर मोटापा एक कलंक है तो नाम बदलने से इससे जुड़ा कलंक रातों-रात ठीक नहीं हो जाएगा। अगर आप भी मोटे हैं और आपके दिल में भी ये सारे सवाल कौंधते रहते हैं तो आपके लिए अब राहत भरी खबर हो सकती है। दरअसल रवीशा जयविक्रमा, पीएचडी अभ्यर्थी, कर्टिन यूनिवर्सिटी, ब्लेक लॉरेंस, लेक्चरर, कर्टिन यूनिवर्सिटी, और ब्रियोनी हिल, सीनियर रिसर्च फेलो, मोनाश यूनिवर्सिटी ने 31 जुलाई को द कन्वरसेशन में बताया है कि ज्यादा वजन वाले लोग एक ऐसे कलंक में जी रहे होते हैं, जो व्यापक है और इन लोगों को मोटा कहना उनके दिल को कहीं गहराई तक प्रभावित करता है।
मोटापा को लेकर भेदभाव किया जाता है। कुछ शोधकर्ता सोचते हैं कि ‘‘मोटापा’’ शब्द ही समस्या का हिस्सा है और इस कलंक को कम करने के लिए अब इसका नाम बदलने की मांग हो रही है। उनका सुझाव है कि मोटापे का नाम ‘‘वसा-आधारित पुरानी बीमारी’’ रख दिया जाना चाहिए लेकिन मोटापा क्या एक बीमारी है, इसे लेकर काफी गहराई तक सोचे जाने की जरूरत है।
शर्मिंदगी महसूस करते हैं मोटे लोग
शोधकर्ताओं ने बताया कि हमने मोटापे से जुड़े कलंक की स्टडी की है और इससे लगता है कि मोटापा सार्वजनिक जीवन में आज अधिक व्यापक है। स्टडी में बताया गया है कि वजन के कलंक को कम करने के लिए वास्तव में क्या आवश्यक है। वजन को लेकर शर्मिंदगी आम है। मोटापे से ग्रस्त 42 प्रतिशत वयस्कों को अपने वजन को लेकर शर्मिंदगी का अनुभव होता है। उन्हें शर्मिंदगी का अनुभव तब होता है जब दूसरों की उनके प्रति नकारात्मक मान्यताएं, दृष्टिकोण, धारणाएं और निर्णय सामने आते हैं। उन्हें गलत तरीके से आलसी समझा जाता है और यह माना जाता है कि उनमें इच्छाशक्ति या आत्म-अनुशासन की कमी होती है।
मोटे लोगों के दिल में बैठ जाती है नकारात्मकता
मोटापे से ग्रस्त शरीर वाले लोग अपने कार्यस्थल, अंतरंग क्षणों और पारिवारिक संबंधों, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और मीडिया सहित कई क्षेत्रों में भेदभाव का अनुभव करते हैं। वजन को लेकर शर्मिंदगी महसूस करना बढ़े हुए कोर्टिसोल स्तर (शरीर में मुख्य तनाव हार्मोन), शरीर की नकारात्मक छवि और खराब मानसिक स्वास्थ्य सहित कई नुकसान से जुड़ा हुआ है। इससे स्वास्थ्य देखभाल की गुणवत्ता में कमी आती है। बढ़े हुए वजन को लेकर होने वाला एहसास किसी के स्वास्थ्य के लिए शरीर के आकार में वृद्धि से भी बड़ा खतरा पैदा कर सकता है।
क्या हमें मोटापे का नाम बदल देना चाहिए?
इसे लेकर शोधकर्ताओं का मानना है कि इस कलंक को कम करने के लिए इसका नाम बदल देना चाहिए और नाम बदलने की मांग कोई नई बात नहीं है। उदाहरण के लिए, 1950 के दशक में समलैंगिकता को ‘‘सोशियोपैथिक व्यक्तित्व गड़बड़ी’’ के रूप में वर्गीकृत किया गया था। कई वर्षों के विरोध और सक्रियता के बाद, मानसिक स्वास्थ्य विकारों के विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त वर्गीकरण से शब्द और शर्त को हटा दिया गया था।
पहले भी बदले गए हैं नाम
हाल के सप्ताहों में, यूरोपीय शोधकर्ताओं ने गैर-अल्कोहल फैटी लीवर रोग का नाम बदलकर ‘‘चयापचय संबंधी शिथिलता-स्टीटोटिक लीवर रोग’’ कर दिया है। ऐसा तब हुआ जब सर्वेक्षण में शामिल 66 प्रतिशत स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों ने ‘‘गैर-अल्कोहोलिक’’ और ‘‘फैटी’’ शब्दों को कलंकपूर्ण माना। इसी तरह से शायद अंततः अब समय आ गया है कि मोटापे का नाम भी बदल देना चाहिए। तो क्या ‘‘वसा-आधारित दीर्घकालिक रोग’’ इसका नाम हो सकता है?
मोटापे को लोग दो सामान्य तरीकों से देखते हैं। सबसे पहले, अधिकांश लोग मोटापा शब्द का उपयोग बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) के लिए करते हैं। अधिकांशतः सार्वजनिक स्वास्थ्य संगठन भी मोटापे को मापने के लिए बीएमआई का उपयोग करते हैं। हालांकि, अकेले बीएमआई किसी के स्वास्थ्य का सटीक मापक नहीं है। यह मांसपेशियों के द्रव्यमान का हिसाब नहीं देता है और शरीर के वजन या वसा ऊतक (शरीर में वसा) के बारे में भी जानकारी नहीं देता है।
मोटापे का नाम बदलकर ‘‘वसा-आधारित पुरानी बीमारी’’ करना उस पुरानी चयापचय संबंधी शिथिलता को स्वीकार करता है जिसे हम वर्तमान में मोटापा कहते हैं। यह लोगों को केवल शरीर के आकार के आधार पर लेबल करने से भी बचाता है।
क्या मोटापा एक बीमारी है?
‘‘वसा-आधारित दीर्घकालिक रोग’’ एक रोग अवस्था की स्वीकृति है। फिर भी इस बात पर अभी भी कोई सार्वभौमिक सहमति नहीं है कि मोटापा एक बीमारी है या नहीं। न ही ‘‘बीमारी’’ की परिभाषा पर स्पष्ट सहमति है। जो लोग बीमारी के प्रति जैविक-निष्क्रिय दृष्टिकोण अपनाते हैं, उनका तर्क है कि शिथिलता तब होती है जब शारीरिक या मनोवैज्ञानिक प्रणालियां वह नहीं करतीं जो उन्हें करना चाहिए।
मोटापे का नाम बदलने से लोगों की यह समझ बेहतर हो सकती है कि मोटापा अक्सर बीएमआई में वृद्धि के साथ जुड़ा होता है, लेकिन बढ़ा हुआ बीएमआई स्वयं कोई बीमारी नहीं है। यह परिवर्तन मोटापे और शरीर के आकार से ध्यान हटाकर, इससे जुड़े जैविक, पर्यावरणीय और जीवनशैली कारकों की अधिक सूक्ष्म समझ और चर्चा की ओर ले जा सकता है।
समाज का दृष्टिकोण बदलने की है जरूरत
तो ऐसे में मोटापे का नाम बदलना कलंक को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है। समाज में पतले लोगों की स्वीकार्यता, आदर्शीकरण और वजन के कलंक की व्यापकता को देखकर लगता है कि मोटापा का कलंक सामाजिक स्तर पर गहराई से व्याप्त है। तो शायद मोटापे के कलंक में सच्ची कमी केवल एक सामाजिक बदलाव से आ सकती है - ‘‘पतले आदर्श’’ के फोकस से दूर एक ऐसे व्यक्ति की ओर सकारात्मकता से देखकर उसे स्वीकार करना जो शरीर के किसी भी आकार में हो सकता है।