तृणमूल कांग्रेस की महिला सांसद महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता को निरस्त कर दिया गया है। संसद में पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले में उनकी संसद सदस्यता खत्म हो गई है। इस मामले में उन्हें लोकसभा की आचार समिति ने दोषी पाया और लोकसभा में उनकी सदस्यता को समाप्त करने की सिफारिश की थी। भाजपा सांसद विनोद सोनकर की अध्यक्षता वाली एथिक्स कमेटी ने इस रिपोर्ट को 8 दिसंबर को लोकसभा के पटल पर रखा। इस रिपोर्ट पर चर्चा के बाद ध्वनि मत से महुआ मोइत्रा की लोकसभा सदस्यता को समाप्त कर दिया गया। इस फैसले से महुआ मोइत्रा नाखुश हैं,लेकिन संसद के कई ऐसे नियम हैं जिस कारण सांसदों की लोकसभा की सदस्यता खत्म हो जाती है। इससे पहले राहुल गांधी को सजा सुनाए जाने के बाद लोकसभा से उनकी सदस्यता को भी रद्द कर दिया गया था।
क्यों गई महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता
संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने मोइत्रा के निष्कासन का प्रस्ताव पेश किया जिसे सदन ने ध्वनिमत से मंजूरी दे दी गई। इससे पहले सदन में लोकसभा की आचार समिति की रिपोर्ट पर चर्चा के बाद उसे मंजूरी दी गई जिसमें मोइत्रा को निष्कासित करने की सिफारिश की गई थी। विपक्ष विशेषकर तृणमूल कांग्रेस ने आसन से कई बार यह आग्रह किया कि मोइत्रा को सदन में उनका पक्ष रखने का मौका मिले, लेकिन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पहले की संसदीय परिपाटी का हवाला देते हुए इससे इनकार कर दिया। सदन में चर्चा के बाद जोशी द्वारा रखे गए प्रस्ताव का उल्लेख करते हुए ओम बिरला ने कहा, ‘‘महुआ मोइत्रा के खिलाफ सदन में प्रश्न पूछने के बदले नकदी लेने में प्रत्यक्ष संलिप्तता के संदर्भ में सांसद निशिकांत दुबे द्वारा 15 अक्टूबर को दी गई शिकायत पर आचार समिति की पहली रिपोर्ट पर विचार के उपरांत समिति के इन निष्कर्षों को यह सभा स्वीकार करती है कि सांसद महुआ मोइत्रा का आचरण अनैतिक और संसद सदस्य के रूप में अशोभनीय है। इस कारण उनका लोकसभा सदस्य बना रहना उपयुक्त नहीं होगा। इसलिए यह सभा संकल्प करती है कि उन्हें लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित कर दिया जाए।’’ इसके बाद सदन ने ध्वनिमत से प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।
कब जाती है किसी की संसद सदस्यता?
संविधान के अनुच्छेद 102 के तहत आयोग्यता का प्रावधान है। इस अनुच्छेद के मुताबिक अगर कोई सदस्य केंद्र या राज्य सरकार में लाभ के पद पर है तो उसकी संसद सदस्यता खत्म की जा सकती है। ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर लाभ का पद क्या होता है। लाभ का पद का मतलब उस पद से होता है जिसपर रहते हुए कोई शख्स सरकार की ओर से किसी भी तरह की सुविधा लेने का अधिकारी हो। अगर कोई व्यक्ति इस पद का लाभ ले रहा है तो वह लोकसभा का सदस्य नहीं रह सकता है और उसे निष्कासित किया जा सकता है। अन्य नियम जैसे अगर सदस्य की दिमागी स्थिति सही नहीं है और कोर्ट ने उसे दिमागी तौर पर अफिटट करार दिया है तो भी उसकी लोकसभा सदस्यता खत्म हो सकती है। लोकसभा सदस्य अगर डिस्चार्ज्ड दीवालिया हो, अगर वह भारत का नागरिक नहीं हो। अगर उसकी नागरिकता खत्म कर दी गई हो या उसने स्वेच्छा से दूसरे देश की नागरिकता स्वीकार कर ली हो, अगर वह संसद द्वारा बनाए गए कानून के तहत आयोग्य ठहराया गया है तो इन सूरतों में भी लोकसभा सदस्य की संसद सदस्यता खत्म की जा सकती है।
क्या कहता है जनप्रतिनिधित्व कानून 1951
यह कानून कहता है कि अगर कोई व्यक्ति दोषी पाए जाने के बाद दो साल या ज्यादा की सजा अदालत से पाता है तो वह अयोग्य ठहराया जाएगा। इसी मामले में राहुल गांधी और अफजाल अंसारी की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया गया था। इस कानून के तहत लोकसभा से निष्कासित किए जाने के बाद व्यक्ति 6 साल तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। हालांकि मौजूदा सदस्यों को इसमें एक छूट या राहत भी मिलती है। इसके तहत मौजूदा सांसदों, विधायकों या विधानपरिषद सदस्यों को दोषी ठहराए जाने के दिन से अपील के लिए 3 महीने की छूट दी जाती है। इसी लाभ का राहुल गांधी को लाभ मिला और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा।
क्या कहता है दलबदल और निर्दलीय कानून
अगर कोई सांसद संविधान के दलबदल कानून का उल्लंघन करते पाया जाता है तो तो उसे लोकसभा से निष्कासित किया जा सकता है। इसका प्रावधान संविधान की 10वीं सूची में हैं। इसके तहत अगर कोई सांसद अपनी पार्टी को छोड़कर किसी अन्य पार्टी में जाता है। अगर वह स्वेच्छा से अपनी सियासी पार्टी की सदस्यता को छोड़ दे, जिससे मिले टिकट के आधार पर वह जीतकर लोकसभा में आया है और अगर कोई सांसद पार्टी व्हिप का उल्लंघन करते हुए वोटिंग करे या सदन में वोटिंग के दौरान मौजूद नहीं रहे तो भी उसे लोकसभा से निष्कासित किया जा सकता है। वहीं अगर कोई निर्दलीय सांसद है तो कानून के तहत उसे 6 महीने के भीतर किसी सियासी पार्टी की सदस्यता लेनी होती है।
क्या है 2005 का मामला जिसपर हो रही चर्चा?
महुआ मोइत्रा के मामले पर चर्चा के दौरान कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने सरकार पर जल्दबाजी करने का आरोप लगाया। इसपर प्रह्लाद जोशी ने साल 2005 के 'कैश फॉर क्वेरी' मामले का जिक्र किया। महुआ मोइत्रा के मामले को समझने के लिए इस मामले को जानना जरूर है। बता दें कि साल 2005 में 10 लोकसभा के और 1 राज्यसभा के सांसद को बिना उनका पक्ष सुने ही लोकसभा से निष्कासित कर दिया गया था। साल 2005 में यूपीए 1 की सरकार थी और मनमोहन सी प्रधानमंत्री थे। कहानी 12 दिसंबर 2005 की है। इस दौरान एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद सियासी भूचाल देखने को मिला था। इस स्टिंग ऑपरेशन में 11 सांसदों को दिखाया गया था, जिसमें वे सदन में सवाल पूछने के बदले पैसे की पेशकश स्वीकार कर रहे थे।
इन सांसदों में वाई जी महाजन, छत्रपाल सिंह लोढ़ा, अन्ना साहेब एमके पाटिल, मनोज कुमार (वर्तमान में आरजेडी के नेता), चंद्र प्रताप सिंह, रामसेवक सिंह, नरेंद्र कुशवाहा, प्रदीप गांधी, सुरेश चंदेल, लाल चंद्र कोल, राजा राम पाल शामिल थे। इस स्टिंग ऑपरेशन में दिखाया गया था कि सांसदों ने लोकसभा में प्रश्न पूछने के एवज में पैसे स्वीकार करने की बात कही है। इस स्टिंग में सबसे कम कैश छत्रपाल सिंह लोढ़ा ने स्वीकार किया था, जो कि 15 हजार रुपये थे। वहीं सबसे अधिक कैश आरजेडी के सांसद मनोज कुमार को ऑफर की गई थी। मनोज कुमार को 1,10,000 रुपये का ऑफर दिया गया था। 24 दिसंबर 2005 को इस मामले पर वोटिंग के जरिए 11 सांसदों को निष्कासित कर दिया गया था। लोकसभा में इस निष्कासन के प्रस्ताव को प्रणब मुखर्जी ने रखा था। वहीं राज्यसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने रखा था। जनवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट ने भी सांसदों के निष्कासन के फैसले को सही ठहराया था।
कौन करेगा अयोग्यता का फैसला
किसी भी सांसद, विधायक या विधानपरिषजद के सदस्य की अयोग्ता का फैसला राज्यसभा में सभापति और लोकसभा में अध्यक्ष द्वारा किया जाएगा। बता दें संविधान की 10वीं सूची में इसका उल्लेख किया गया है। वहीं विधानसभा में विधानसभा अध्यक्ष इस तरह के निष्कासन के मामले में फैसला करने का अधिकार रखते हैं। साल 1992 में एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने पैसला दिया था कि अगर मामला अदालत में विचाराधीन हो तो स्पीकार और चेयरमैन किसी भी सदस्य के निष्कासन से पूर्व सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतीक्षा करेंगे। बता दें कि साल 2013 में लिली थॉमस बनाम केंद्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सेक्शन 8(4) के तहत जनप्रतिनिधित्व एक्ट 1951 को असंवैधानिक बताया, जिसमें सांसदों या विधायकों को सजा पाने के बाद अपील करने तक पद पर बनाए रखता था। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सांसदों या विधायकों को अगर दो साल या इससे अधिक की सजा मिलती है तो उन्हें तुरंत अयोग्य ठहरा दिया जाए।