नई दिल्ली : दिल्ली सर्विस बिल लोकसभा से पास हो गया है। अब इसे राज्यसभा से पास कराने की तैयारी में सरकार जुटी है। वहीं दिल्ली में सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी का जोर इस बात पर है कि किसी तरह यह बिल राज्यसभा से पास नहीं हो। आम आदमी पार्टी ने विपक्षी गठबंधन के सभी दलों से एकजुट होकर इस बिल का विरोध करने का अनुरोध भी किया है।
इस एक्सप्लेनर में यह जानने की कोशिश करेंगे कि आखिर दिल्ली सर्विस बिल क्या है और इसके लागू होने के बाद दिल्ली सरकार और केंद्र के अधिकारों में क्या बदलाव आएगा। क्योंकि केजरीवाल सरकार दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की मांग लंबे अर्से से कर रही है।इस मुद्दे पर केंद्र से लगातार उसका टकराव हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला अहम मोड़
दिल्ली में अधिकारों को लेकर चल रही इस जंग में निर्णायक मोड़ उस वक्त आया जब सुप्रीम ने मई महीने में इस पर अहम फैसला सुनाया। इस फैसले से काफी हद तक सत्ता की शक्तियां दिल्ली की चुनी सरकार के हाथ में चली गईं। लेकिन इसके बाद केंद्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया। इस अध्यादेश से एक बार फिर दिल्ली सरकार को मिले बहुत कुछ अधिकार उपराज्यपाल के हाथों में चले गए। लिहाजा आम आदमी पार्टी का विरोध बढ़ता गया। उसने इस अध्यादेश के खिलाफ विभिन्न विपक्षी दलों के नेताओं से मुलाकात की और इसका संसद में विरोध करने की अपील की। फिर विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन बना और इसकी बुनियाद में भी दिल्ली सर्विस बिल का विरोध करने की बात रखी गई।
दिल्ली सर्विस बिल क्या है ?
इस बिल के उद्देश्य और कारणों में कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 239 (क) (क) को प्रभावी बनाने की दृष्टि से अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग और अन्य मुद्दों से संबंधित विषयों पर एक स्थाई प्राधिकरण का गठन किया जाएगा। इसके गठन से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और केंद्र सरकार के हितों का संतुलन होगा। इसके माध्यम से दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र शासन अधिनियम 1991 में संशोधन करने का प्रावधान किया गया है। इसमें उपराज्यपाल और मंत्री, पदों को परिभाषित करने का प्रावधान है। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए लोक सेवा आयोग होगा। दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी राज्य क्षेत्र सरकार के कार्यों से संबंधित नियमों को बनाने के लिए केंद्र सरकार को सशक्त करने की बात कही गई है। इसमें राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण का गठन करने पर अधिकारियों की शक्तियां और कार्य एवं इससे संबंधित अन्य मामलों का उल्लेख किया गया है।
दिल्ली सर्विस बिल से जुड़े कुछ अहम प्वाइंट
- मंगलवार को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने दिल्ली सर्विस बिल को लोकसभा में पेश किया।
- इस बिल में दिल्ली अध्यादेश से जुड़े कुछ नियमों में सुधार किया गया है तो कुछ चीजें हटाईं भी गई हैं।
- इस बिल के मुताबिक दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है इसलिए इसका प्रशासन राष्ट्रपति के पास है।
- इस बिल में एक सिविल सेवा प्राधिकरण बनाने का प्रस्ताव है जो दिल्ली सरकार में सेवारत ग्रुप ए और दिल्ली, अंडमान और निकोबार द्वीप सिविल सेवा के अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग की सिफारिश करेगा।
- दिल्ली के सीएम इस प्राधिकरण के अध्यक्ष होंगे। इस प्राधिकरण में दिल्ली के मुख्य सचिव और प्रधान गृह सचिव भी शामिल होंगे।
- इस प्राधिकरण के अंदर सारे फैसले बहुमत से लिए जाएंगे। एलजी प्राधिकरण की सिफारिशों के आधार पर फैसले लेंगे।
- उपराज्यपाल के पास यह अधिकार है किसी भी सिफारिश को प्रभावी करने के लिए वह उचित आदेश पारित करेंगे।
बिल से ये नियम हटाए गए
अध्यादेश द्वारा धारा तीन ए के रूप में जोड़े गए दिल्ली विधानसभा के संबंध में अतिरिक्त प्रावधान को बिल से हटा दिया गया है। इसमें दिल्ली विधानसभा को सेवाओं से संबंधित कानून बनाने का अधिकार नहीं दिया गया था। इसकी जगह बिल में आर्टिकल 239ए ए पर जोर दिया गया है। इससे केंद्र को नेशनल कैपिटल सिविल सर्विस अथॉरिटी बनाने का अधिकार मिल जाता है। पहले इस अथॉरिटी को अपनी वार्षिक गतिविधियों की रिपोर्ट दिल्ली विधानसभा और संसद दोनों को देनी थी, लेकिन अब इस प्रावधान को हटा दिया गया है।
बिल के पास होने के बाद क्या होगा
- राज्य सरकार और मुख्यमंत्री की शक्तियां काफी हद तक कम हो जाएंगी।
- दिल्ली में कार्यरत अधिकारियों पर दिल्ली सरकार का कंट्रोल खत्म हो जाएगा।
- दिल्ली में कार्यरत अधिकारियों पर कंट्रोल की शक्तियां एलजी के जरिए केंद्र के पास चली जाएंगी
- दिल्ली में अफसरों का ट्रांसफर और पोस्टिंग के मामले में प्राधिकरण की सिफारिश पर अंतिम फैसला एलजी लेंगे
- प्राधिकरण और एलजी की राय अलग-अलग हुई तो फिर एलजी का फैसला ही अंतिम माना जाएगा
अफसरों के ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए प्राधिकरण पर निर्भरता
अगर यह बिल राज्यसभा से भी पास हो जाता है तो फिर केजरीवाल सरकार को इसी के मुताबिक सत्ता चलानी होगी। अफसरों की ट्रांसफर और पोस्टिंग वह अपनी मर्जी से नहीं कर सकेंगे। इसके लिए उन्हें प्राधिकरण पर निर्भर रहना होगा। इतना ही नहीं अगर प्राधिकरण के जरिए वह सहमति के आधार पर किसी फैसले तक पहुंचते हैं तो वहां भी उनके लिए एक अड़चन उपराज्यपाल का मंतव्य लेना होगा। उपराज्यपाल अगर प्राधिकरण के फैसले से संतुष्ट नहीं हैं तो उनके पास यह अधिकार होगा कि वे अंतिम फैसला खुद ले सकते हैं जो सभी को मानना पड़ेगा।