नई दिल्ली: लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने बुधवार को नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। पिछले 9 सालों में यह दूसरा मौका होगा जब यह सरकार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करेगी। इससे पहले मोदी सरकार के खिलाफ जुलाई 2018 में भी कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाया था। 2018 के अविश्वास प्रस्ताव के समर्थन में सिर्फ 126 वोट पड़े थे, जबकि इसके खिलाफ 325 सांसदों ने वोट दिया था। इस बार के अविश्वास प्रस्ताव की बात करें तो इसका भविष्य भी पहले से तय है क्योंकि संख्याबल साफ तौर पर बीजेपी क पक्ष में है क्योंकि लोकसभा में विपक्षी दलों के 150 से भी कम सदस्य हैं।
निश्चित हार के बावजूद अविश्वास प्रस्ताव क्यों लाया विपक्ष?
बहुत सारे लोगों के मन में यह सवाल उठ रहा है कि जब अविश्वास प्रस्ताव से मोदी सरकार को कोई खतरा नहीं है तो विपक्ष इसे लेकर ही क्यों आया? इसके जवाब में बता दें कि विपक्ष यह दलील दे रहा है कि कि वे चर्चा के दौरान मणिपुर मुद्दे पर सरकार को घेरते हुए धारणा से जुड़ी लड़ाई में सरकार को मात देने में सफल रहेंगे। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए जरूरी है कि उसे कम से कम 50 सदस्यों का समर्थन हासिल हो। अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा की तिथि तय करने के संदर्भ में 10 दिनों के भीतर फैसला करना होता है। सदन की मंजूरी के बाद इस पर चर्चा और मतदान होता है।
प्रस्ताव पर हुए मतदान में सत्तापक्ष हार जाए तो क्या होगा?
अगर सत्तापक्ष अविश्वास प्रस्ताव पर हुए मतदान में हार जाता है तो प्रधानमंत्री समेत पूरे मंत्रिपरिषद को इस्तीफा देना होता है। बता दें कि अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए भारत में आज तक किसी की सरकार नहीं गिरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आया पिछला अविश्वास प्रस्ताव मुंह के बल गिरा था और विपक्ष 150 वोट भी नहीं जुटा पाया था। इस बार भी कहानी कुछ ऐसी ही रह सकती है क्योंकि विपक्ष का संख्याबल जाहिर तौर पर काफी कम नजर आ रहा है। ऐसे में कहा जा सकता है कि अविश्वास प्रस्ताव से पीएम मोदी और उनकी कैबिनेट को कोई खतरा नहीं है।
विश्वास मत और अविश्वास प्रस्ताव में क्या अंतर होता है?
विश्वास मत और अविश्वास प्रस्ताव पूरी तरह अलग-अलग चीजें हैं। अविश्वास प्रस्ताव जहां विपक्ष द्वारा लाया जाता है, वहीं विश्वास मत को सरकार लाती है। अगर स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं और सत्ता पक्ष बहुमत साबित नहीं कर पाता तो सरकार गिर जाती है। वहीं, जब सरकार विश्वास प्रस्ताव लाती है और यह पारित नहीं हो पाता तो सरकार की विदाई तय हो जाती है। सरकार 2 स्थितियों में विश्वास मत प्रस्ताव लाती है:
1) सरकार के गठन के बाद बहुमत परीक्षण के लिए
2) सहयोगी दलों के द्वारा समर्थन वापसी की घोषणा के बाद राष्ट्रपति के कहने पर
नेहरू को करना पड़ा था पहले अविश्वास प्रस्ताव का सामना
भारतीय संसदीय इतिहास में अविश्वास प्रस्ताव लाने का सिलसिला देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समय ही शुरू हो गया था। नेहरू के खिलाफ 1963 में आचार्य कृपलानी अविश्वास प्रस्ताव लेकर आए थे। इस प्रस्ताव के पक्ष में केवल 62 मत पड़े थे जबकि विरोध में 347 मत आए थे। नेहरू के बाद लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पी वी नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी, मनमोहन सिंह समेत कई प्रधानमंत्रियों को अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा था।
इंदिरा के खिलाफ सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव लाए गए
मोदी सरकार के खिलाफ दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव लाए जाने से पहले कुल 27 बार अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं और इनमें से किसी भी मौके पर सरकार नहीं गिरी। इंदिरा गांधी को सबसे ज्यादा 15 बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा। इंदिरा गांधी के अलावा लाल बहादुर शास्त्री के खिलाफ 3 अविश्वास प्रस्ताव, पी वी नरसिंह राव के खिलाफ 3, मोरारजी देसाई के खिलाफ 2 और राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ एक-एक प्रस्ताव लाये गए थे। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ भी दूसरी बार अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है।
विश्वास मत का सामना करते हुए 3 बार गिरी हैं सरकारें
अविश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए भले ही किसी भी मौके पर सरकार नहीं गिरी, लेकिन विश्वास प्रस्ताव का सामना करते हुए 3 सरकारों को जाना पड़ा है। पहली बार 7 नवंबर 1990 को वीपी सिंह की सरकार ने विश्वासमत खो दिया था। उनके पक्ष में 142 मत पड़े थे जबकि विपक्ष में 346 वोट पड़े थे। 1997 में एचडी देवेगौड़ा की सरकार ने 158 के मुकाबले 292 मतों से विश्वासमत खो दिया था और सरकार गिर गई थी। आखिरी बार अप्रैल 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने 269 के मुकाबले 270, यानी कि सिर्फ एक वोट के अंतर से विश्वासमत खो दिया था और उनकी सरकार गिर गई थी।