30 अक्टूबर 1990 की तारीख बड़ी खास और दुखद है। इस दिन अयोध्या में कर्फ्यू लागू था। इससे एक दिन पहले उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का एक बयान आता है। अपने बयान में वो कहते हैं कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता। बावजूद इसके भारी संख्या में लोग अयोध्या पहुंचते हैं। पुलिस ने एक खास रास्ते पर डेढ़ किलोमीटर तक बैरिकेडिंग कर रखी थी। सुबह के 10 बजे तक हनुमानगढ़ी इलाके में भीड़ पहुंच जाती है। बैरिकेडिंग को भी तोड़ दिया जाता है। भीड़ एक मस्जिद की ओर बढ़ने लगती है। तभी अयोध्या में तैनात पुलिस अधिकारियों को लखनऊ से एक आदेश आता है। आदेश था गोली दागने का। पुलिस ने गोलियां चलाई। कहीं गोली लगने से तो कहीं भगदड़ मचने से कई लोगों की मौत हुई। मामला यहीं नहीं रुका। 1 नवंबर को मृतकों का अंतिम संस्कार होता है। 2 नवंबर को लोगों की भीड़ फिर से हनुमानगढ़ी के पास मौजूद संकरी गली से होते हुए मस्जिद की तरफ बढ़ती है। सामने पुलिस थी। एक बार फिर आदेश लखनऊ से आया। आदेश था फायर करने का। 2 नवंबर 1990 को फिर पुलिस ने गोलीबारी की। फिर कई लोगों की मौत हुई। ये कहानी कोई आम कहानी नहीं, बल्कि इतिहास में दर्ज वो कहानी है, जिसने सबसे ज्यादा समय तक विवादों का सामना किया। जिसे हम बाबरी मस्जिद या राम जन्मभूमि विवाद के नाम से जानते हैं। बता दें कि इस कहानी को हम चार चरणों में बताएंगे। क्योंकि इस कहानी को समझने का यही बेहतर तरीका है।
1528 से 1947 के बीच क्या हुआ?
इस कहानी की शुरुआत होती है 1528 से। इस समय तक बाबर ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और देश में मुगल साम्राज्य की नींव पड़ गई थी। इतिहासकारों की मानें तो बाबर के कमांडर यानि सेनापति मीर बाकी ने बाबर के आदेश के बाद अयोध्या में राम मंदिर को तुड़वा दिया। इसके बाद वहां एक मस्जिद बनाई। मस्जिद का नाम रखा बाबरी मस्जिद। 1528 में मस्जिद बनाई गई या नहीं। इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। आईने अकबरी हो या बाबरनामा दोनों में ही इसका जिक्र नहीं मिलता। तुलसीदास ने 1574 में रामचरितमानस का अवधी में अनुवाद किया। इस किताब में भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख नहीं मिलता। कहानी आगे बढ़ती है और साल आता है 1838। इस साल पहली बार अयोध्या में सर्वे किया गया। सर्वे करने वाला अधिकारी ब्रिटिश था, जिसका नाम था मॉन्टगोमेरी मार्टिन (Montgomery Martin)। मार्टिन ने सर्वे के बाद बताया कि मस्जिद में जो पिलर मिले हैं, वो हिंदू मंदिर से लिए गए हैं। बता दें कि 1838 से पहले के तीन सौ वर्षों का कुछ खास इतिहास मौजूद नहीं है। लेकिन ब्रिटिश अधिकारी के सर्वे के बाद अयोध्या में पहली बार साल 1838 में ही बवाल होता है। हिंदू कहते हैं कि जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद है, वहां पहले भगवान राम का मंदिर हुआ करता था, जिसे बाबर ने तुड़वा दिया और उसपर मस्जिद का निर्माण करवाया।
साल 1853 आता है और पहली बार अयोध्या में दंगा होता है। इसके बाद 1857 में हनुमानगढ़ी के महंत ने मस्जिद के आंगन के पूर्वी हिस्से में एक चबूतरा बनाया। इसी चबूतरे को राम चबूतरा कहा गया। इसी स्थान को रामजन्मभूमि भी कहा गया। विवाद बढ़ा तो इसके विरोध में मौलवी मोहम्मद असगर ने जिला मिजिस्ट्रेट के सामने अर्जी लगाई। पहली बार साल 1859 में मिजिस्ट्रेट के आदेश के बाद मस्जिद में एक दीवार खड़ी कर दी जाती है। इस तरह भीतरी हिस्से में मुसलमानों को इबादत और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति मिली। अब साल आता है 1885। निर्मोही अखाड़ा के महंत रघुवार दास ने राम चबूतरे की कानून हक लेने के लिए कोर्ट में अर्जी डाली। इस जगह उन्होंने मंदिर बनाने को लेकर कोर्ट से मांग की। इस याचिका में चबूतरे वाले स्थान को ही राम जन्मभूमि बताया गया था। ये अर्जी साल 1886 में खारिज कर दी जाती है। अब कहानी सीधा पहुंचती है साल 1934 में। अब सवाल ये उठता है कि 1886-1934 तक क्या हुआ। इस दौरान कई दस्तावेजों ने ये दावा किया कि अयोध्या में कई मंदिरों को तोड़ा गया और उसपर मस्जिदों का निर्माण हुआ, उनमें से एक राम मंदिर भी था। साल 1934 में अयोध्या में सांप्रदायिक दंगे हुए। लोगों ने बाबरी मस्जिद के कुछ हिस्से को ढहा दिया। मस्जिद के टूटे हुए हिस्से को अंग्रेजों ने ठीक कराया। साल 1944 में वक्फ बोर्ड की तरफ मस्जिद को सुन्नी प्रॉपर्टी घोषित कर दी जाती है। सुन्नी प्रॉपर्टी इसलिए क्योंकि बाबर सुन्नी मुसलमान था।
1947 से 1980 के बीच क्या हुआ?
साल 1947 में देश आजाद हुआ। बंटवारे का जख्म ताजा था। हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत इस समय पक्के तौर पर थी। आजादी के बाद राम मंदिर की मांग जोर पकड़ती है। दिसंबर 1949 में अयोध्या में 9 दिनों के रामचरितमानस पाठ का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन में गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजय नाथ भी शामिल थे। 22 और 23 दिसंबर की रात मस्जिद में भगवान राम की मूर्तियां मिलती हैं। आरोप हिंदुओं पर लगता है। कहा गया कि उन्होंने मूर्तियों को विवादित स्थान पर रखा। 23 दिसंबर की सुबह मस्जिद में रामलला की पूजा शुरू हो जाती है। हिंदू वहां पूजा और दर्शन करने पहुंचते हैं तो मुस्लिम वहां विरोध करने पहुंचते हैं। मामला फिर कोर्ट में पहुंचता है। ये वो समय था जब देश में संविधान लागू नहीं हुआ था। संविधान की धर्मनिरपेक्षता अबतक तय नहीं की जा सकी थी। इस दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने बयान दिया और कहा कि जो हुआ वह गलत हुआ किसी भी धार्मिक स्थान को कोई हथिया नहीं सकता।
एक किस्सा है नेहरू और उस समय के फैजाबाद के जिलाधिकारी केके नायर का। दरअसल नेहरू केके नायर को खत लिखते हैं। वो मस्जिद से मूर्ति हटाने और पहले जैसी यथास्थिति बनाने का आदेश देते हैं। केके नायर इस आदेश को नकार देते हैं। अपने खत में वो नेहरू को जवाब देते हुए लिखते हैं कि यहां स्थिति गंभीर है, दंगे या हिंसा हो सकती है। नायर के खत को पढ़ने के बाद नेहरू फिर एक खत लिखते हैं। यह चिट्ठी नायर के पास 27 दिसंबर 1949 को आती है। नेहरू लिखते हैं, 'आदेश का पालन किया जाए और यथास्थिति बनाई जाए।' इसके जवाब में नायर ने नेहरू को खत लिखकर सुझाव दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि इस मामले को अदालत को दे दिया जाए। जब तक अदालत का फैसला नहीं आता तब तक मस्जिद में रखी गई मूर्ति के वहां एक जालीनुमा गेट लगा दी जाए। नेहरू ने इस सुझाव को स्वीकार कर लिया। इसके बाद मामला कोर्ट पहुंचा। 29 दिसंबर 1949 को कोर्ट ने बाबरी मस्जिद को पहली बार विवादित स्थल घोषित किया। इसी के बाद से बाबरी मस्जिद के लिए विवादित ढांचा जैसे शब्दों का प्रयोग होने लगा। कोर्ट के आदेश के बाद मस्जिद के बाहर ताला लग गया।
16 जनवरी 1950 को गोपाल सिंह विशारद सिविल केस फाइल करते हैं। वो कोर्ट से मांग करते हैं कि हिंदुओं को पूजा की अनुमति दी जाए और मूर्तियों को उस जगह से न हटाया जाए। लेकिन कोर्ट ने इस अपील को खारिज कर दिया। साल 1959 में निर्मोही अखाड़ा एक बार फिर पिक्चर में आता है। निर्मोही अखाड़ा कोर्ट पहुंचता है। अखाड़े ने इस बार केवल राम चबूतरे की ही नहीं बल्कि पूरे 2.77 एकड़ जमीन का हक कोर्ट से मांगा। इसके दो साल बाद सुन्नी वक्फ बोर्ड ने भी कोर्ट में केस दायर किया। वक्फ ने मुस्लिमों का पक्ष रखते हुए केस फाइल किया और कहा कि यहां पहले मस्जिद थी और अब भी मस्जिद है। इसके बाद अगले 20-25 साल तक कोर्ट में केस चलता रहा।
1980 से 1990 के बीच क्या हुआ?
अब साल आ गया 1980 का। भाजपा जनसंघ से अलग हो गई थी। भाजपा ने खुलकर हिंदू संगठनों और राममंदिर का समर्थन किया। हिंदू संगठन एक्टिव हो जाते हैं। मांग उठती है कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर राम मंदिर का निर्माण किया जाए। साल 1984 में धर्म संसद का दिल्ली में आयोजन किया गया। विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) नेता अशोक सिंघल ने रथयात्रा निकालने की बात कही, लेकिन इसके 6 महीने बाद ही इंदिरा गांधी की हत्या हो जाती है। रथयात्रा को टाल दिया गया। इंदिरा की हत्या के बाद राजीव गांधी कमान संभालते हैं और प्रधानमंत्री बनते हैं। राजीव के लिए दो अहम चुनौतियां थीं। पहली की राममंदिर के मुद्दे पर क्या रुख होना चाहिए और दूसरा कि हिंदू संगठनों की लामबंदी पर कंट्रोल कैसे किया जाए। हालांकि इस समय देश में एक घटना घटती है, जिसने मंदिर आंदोलन की आग में घी का काम किया। दरअसल इंदौर की रहने वाली शाह बानों के केस में राजीव गांधी ने मुस्लिम वोट बैंक को खुश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया।
राजीव गांधी ये जानते थे कि उन्हें इस फैसले को बैलेंस करना होगा। इसके बाद राजीव गांधी ने उस समय के यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह पर दबाव डाला कि बाबरी मस्जिद के ताले को खोल दिया जाए। इसके कुछ ही दिन बाद 1986 में फैजाबाद की अदालत ने बाबरी मस्जिद के ताले को खोलने का आदेश दिया और मंदिर में पूजा करने की भी इजाजत दे दी। लेकिन सवाल ये भी है क्या इससे पहले पूजा नहीं होती थी। पूजा जरूर होती थी, लेकिन कोर्ट द्वारा नियुक्त एक पुजारी द्वारा साल में केवल एक बार। ताला खुलने के बाद कोई भी अयोध्या जा सकता था, पूजा कर सकता था। लेकिन नमाज अब भी शुरू नहीं हो सकी थी। ताला खुलने के बाद मुस्लिम पक्ष ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी बनाई। ताला खुलने के बाद अब देशभर में रामिशिलाओं की पूजा और उन्हे अयोध्या ले जाने की बारी थी। फिर राजीव पर भूमिपूजन के लिए दबाव बनने लगा। वो कंफ्यूजन में थे। लेकिन एक बार फिर उन्होंने अपने हिंदू वोटबैंक को बचाने का फैसला लिया। ऐसा कहा जाता है कि राजीव इस समस्या के हल के लिए देवराहा बाबा के पास पहुंचे। देवराहा बाबा ने उनसे कहा कि मंदिर बनना चाहिए, शिलान्यास हो जाने दो बच्चा। शिलान्यास का वक्त 9 नवंबर 1989 तय किया गया। इससे पहले देशभर में रामशिलाओं की पूजा हुई। सांप्रदायिक तनाव भी बढ़ा, कई जगहों पर दंगे हुए, सैकड़ों लोग मारे गए।
9 नवंबर को विहिप ने विवादित स्थल के पास राम मंदिर की नींव रख दी और मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज कर दिया। कहते हैं कि यह पहली बार था जब सरकार को आभास हुआ कि बाबरी मस्जिद गराई जा सकती है। साल 1989 चुनावी साल था। वोटबैंक की राजनीति जोरों पर थी। राजीव गांधी ने अयोध्या से ही अपनी चुनावी रैली की शुरू की। लेकिन इसका उन्हें फायदा नहीं हुआ। 1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 85 सीटें मिली। इससे पहले हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के पास केवल 2 ही सीटें थीं। भाजपा ने वीपी सिंह को समर्थन दिया। वीपी सिंह प्रधानमंत्री मंत्री बनें। 25 सितंबर 1990 को लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा निकालने की घोषणा करते हैं। रथयात्रा जो सोमनाथ से अयोध्या तक निकाली जानी थी, जिसे 30 अक्टूबर 1990 तक अयोध्या पहुंचना था। नरेंद्र मोदी उस समय गुजरात में रथयात्रा के प्रभारी थे। कारसेवकों को बड़ी संख्या में अयोध्या पहुंचने का आदेश होता है। योजना थी कि 30 अक्टूबर को अयोध्या में पहली कारसेवा की जाएगी। आडवाणी ने रथयात्रा निकाली। इस दौरान देशभर में खूब हिंसा और दंगे हुए, लोग भी मरे। 23 अक्टूबर को आडवाणी की रथयात्रा बिहार के समस्तीपुर पहुंचती है। वीपी सिंह के आदेश पर तत्कालीन बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने रथयात्रा को रुकवा दिया। आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तारी की यह जानकारी दिल्ली पहुंची तो अटल बिहारी वाजपेयी ने वीपी सिंह की सरकार से समर्थन वापस खींच लिया।
केंद्र की वीपी सिंह की सरकार गिर गई। 30 अक्टूबर 1990 तक देशभर से भारी संख्या में कारसेवक अयोध्या पहुंचते हैं। इस दिन अयोध्या में कर्फ्यू लागू था। तमाम प्रतिबंधों के बावजूद कारसेवकों की भारी भीड़ वहां इकट्ठा होती है। हालात हिंसक बन जाते हैं। कारसवेक मस्जिद पर चढ़ कर केसरिया ध्वज फहरा देते हैं। तभी लखनऊ से अयोध्या के पुलिस अधिकारियों को एक फोन आता है। ये फोन था यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव का। उन्होंने कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया। पुलिस ने आदेश का पालन किया और गोलियां चला दी। कई कारसेवक मरे। कोई गोली से तो कोई भगदड़ की चपेट में आकर। इसके बाद 2 नवंबर 1990 को फिर ऐसी ही घटना होती है। कारसेवकों पर गोलियां चलाने का फिर आदेश लखनऊ से ही आया। इस दौरान कुल 28 कारसवेकों की मौत हुई। मरने वालों में कोठारी बंधु भी शामिल थे। यह वही दौर था, जिसके बाद मुलायम सिंह यादव के लिए मुल्ला मुलायम जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा।
1991 के बाद क्या हुआ?
एक बार फिर चुनावी दौर शुरू होता है। मई 1991 में चुनाव प्रचार करने गए राजीव गांधी की हत्या कर दी जाती है। देश में कांग्रेस के प्रति सहानुभूति थी। कांग्रेस केंद्र में अधिकार जमाती है। पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बनते है। इसी साल जून में यूपी में चुनाव हुए। भाजपा सरकार बनाती है। कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बनते हैं। सरकार बनते ही विवादित स्थल के पास की भूमि एक ट्रस्ट को दे दी जाती है। ट्रस्ट का नाम था जन्मभूमि न्यास। इस जमीन पर पहले कई मंदिर और आश्रम थे। उनके महंतों ने सहमति से न्यास को अपनी भूमि दान की और कहा कि राम मंदिर का निर्माण हो सके, इसलिए यह दान दिया जा रहा है। न्यास इस भूमि पर निर्माण कार्य शुरू कर देती है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इसमें दखल दिया और निर्माण कार्य पर रोक लगा दी। पीवी नरसिम्हा राव 30 अक्टूबर 1992 को दोनों पक्षों यानि हिंदू और मुस्लिम पक्षों को दिल्ली बुलाते हैं। बातचीत करने के लिए दिल्ली पहुंचे दोनों गुटों के बीच बातचीत का कोई निष्कर्ष नहीं निकलता। इसी दिन वीएचपी के नेता प्रधानमंत्री आवास से निकलकर एक स्थान पर प्राइवेट मीटिंग करते हैं। ऐलान करते हैं कि 6 दिसंबर 1992 को कार सेवा दिवस मनाया जाएगा। देशभर से हिंदुओं को एक बार फिर अयोध्या आने को कहा जाता है। कहते हैं कि 6 दिसंबर की प्लानिंग काफी समय पहले हो चुकी थी। एक बात यह भी सामने आती है कि 6 दिसंबर से पहले 5 दिसंबर को मस्जिद गिराने का रिहर्सल किया गया था।
6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में लगभग 2 लाख कारसेवक पहुंच चुके थे। ये कारसेवक मस्जिद की तरफ बढ़ते हैं। भीड़ ने मस्जिद को गिरा दिया। पहला गुंबद दो बजे तक, दूसरा गुंबद साढ़े तीन बजे तक और तीसरा गुंबद 5 बजे तक गिरा दिया जाता है। वहां रामलला के लिए एक छोटे मंदिर को तैयार किया जाता है। राम लाल उसमें विराजमान होते हैं। मुलायम सिंह की तरह तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने कोई सख्त एक्शन नहीं लिया। बल का भी प्रयोग नहीं किया, जब मस्जिद गिरी तो वीएचपी और भाजपा के कई नेता वहां मंच पर मौजूद थे। वो कार्यकर्ताओं और कारसेवकों से संयम बरतने की अपील करते हैं। इन नेताओं पर अब भी केस चल रहा है, जो कोर्ट में लंबित है। 6 दिसंबर की शाम 6 बजे तक यूपी में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है। कल्याण सिंह का इस्तीफा पहले से तैयार था, वो इस्तीफा दे देते हैं। 7 दिसंबर को पीवी नरसिम्हा राव संसद में बयान देते हैं और कहते हैं मस्जिद को गिराना बर्बर कार्य था।
बाबरी मस्जिद गिरने के बाद अगले कुछ समय तक मामला शांत रहता है। अगले कुछ सालों में केंद्र में भाजपा की सरकार आ जाती है। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन जाते हैं। 2001 में वीएचपी केंद्र सरकार को कड़ा संदेश देती है। कहती है, 'मस्जिद गिर चुकी है, राम मंदिर बनाने की तैयारी शुरू करें।' सरकार यदि नहीं करेगी तो वीएचपी खुद मंदिर बनाएगी। साल 2002 में यूपी चुनाव के लिए भाजपा ने घोषणापत्र जारी किया। राम मंदिर निर्माण का मुद्दा इसमें नहीं था। वीएचपी ने फिर आह्वान किया और कारसेवक फिर अयोध्या में जुटे। लेकिन प्रशासन हस्तक्षेप करती है। इसी दौरान कारसेवक जब लौट रहे थे तो गोधरा की एक ट्रेन में आग लगा दी जाती है, जिसमें बाद कई कारसेवक व अन्य लोग जलकर मर जाते हैं। परिणामस्वरूप गुजरात में भीषण दंगे होते हैं। देश में माहौल खराब हो चुका था, कोर्ट ने मामले की गंभीरता को समझा। अप्रैल 2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन जजों की बेंच विवादित स्थल के मालिकाना हक की कार्रवाई शुरू करती है। Archaeological Survey of India यानी एएसआई को वैज्ञानिक सबूत जुटाने का काम दिया जाता है। एएसआई विवादित स्थान पर खुदाई करती है। खुदाई 6 महीने तक चलती है। अगस्त 2003 में एएसआई रिपोर्ट पेश करती है।
रिपोर्ट में एएसआई ने बताया कि खुदाई में 10-12 सेंचुरी के बीच के हिंदू मंदिरों के अवशेष मिले हैं। पिलर, ईंटे, शिलालेख और अन्य चीजें मिली हैं। पहली बार विवादित स्थल से जुड़े वैज्ञानिक सबूत मिलते हैं। मामला कोर्ट में चलता रहता है। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अनोखा फैसला सुनाया। कोर्ट ने 2.77 एकड़ वाली विवादित भूमि को तीन बराबर हिस्सों में बांट दिया। इसमें एक तिहाई हिस्सा निर्मोही अखाड़ा, एक तिहाई हिस्सा राम जन्मभूमि न्यास और बाकी एक तिहाई हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया। इस फैसले से तीनों ही नाखुश थे। साल 2011 में पहली बार तीनों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। जनवरी 2019 में अयोध्या केस की सुनवाई के लिए पांच जजों की संवैधानिक पीठ बनाई गई। इसकी अध्यक्षता कर रहे थे चीफ जस्टिस रंजन गोगोई। पीठ में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड, जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस बोबड़े और जस्टिस एनवी रमन्ना को शामिल किया गया। 5 जजों की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। 9 नवंबर 2019 को ऐतिहासिक फैसला आया। इस फैसले ने राम मंदिर के 492 साल पुराने संघर्ष पर विराम लगा दिया। बेंच ने सर्वसम्मति से फैसला लिया और एएसआई की साइंटिफिक रिपोर्ट का हवाला दिया तथा 2.77 एकड़ की पूरी जमीन जो विवादित थी, वह रामलला विराजमान को दे दी गई। सरकार को आदेश हुआ कि राममंदिर निर्माण के लिए ट्रस्ट बनें। सुन्नी वक्फ बोर्ड को अयोध्या में किसी और स्थान पर 5 एकड़ जमीन देने का भी आदेश हुआ। 5 फरवरी 2020 को रामजन्मभूमि ट्रस्ट को मंजूरी मिली। 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अयोध्या पहुंचते हैं। रामजन्मभूमि का पूजन और शिलान्यास करते हैं। अंत में 22 जनवरी 2024 को रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने वाली है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद इस कार्यक्रम में मौजूद रहेंगे। रामजन्मभूमि के संघर्ष की कुछ अैसी थी 492 साल तक चली कहानी।
अब कुछ बयान और तथ्यों पर नजर डालते हैं?
इतिहास के पन्नों में एक बात स्पष्ट रूप से दर्ज है कि मुस्लिम, मुगल या कोई अन्य विदेशी आक्रांता रहा हो, जिसने भी भारत पर हमला किया उसने मंदिरों को तुड़वाकर उन स्थानों पर मस्जिदों को निर्माण कराया। डॉ. भीमराव अंबेडकर अपनी किताब पाकिस्तान द पार्टिशन ऑफ इंडिया में इसका जिक्र करते हैं। इंग्लैंड के ट्रैवलर विलियम फिंच 1611 में अयोध्या में आते हैं। फिंच ने अपनी यात्रा के विवरण में रामचंद्र के महल और उनके घर को ढहाने का जिक्र किया है। वो मस्जिद की बात नहीं लिखते हैं। 1634 में थॉमस हर्बर्ट भी राम के महल का जिक्र करते हैं। 1717 में जयपुर के राजपूत राजा सवाई जयसिंह द्वितीय अयोध्या के मस्जिद के पास जमीन खरीदते हैं। जयपुर सिटी पैलेस में मौजूद दस्तावेज में रामजन्मभूमि के स्थान का जिक्र मिलता है। जोसफ टेफेन्थैलर (Joseph Tiefenthaler) 1767 में इंडिया आए, उन्होंने डिस्क्रिप्टो इंडिया किताब लिखा। इस किताब में उन्होंने बताया कि राम के किले को ढहाया गया, जिसे राम का जन्मस्थान कहा जाता है। इसके स्थान पर मस्जिद बनाई गई। 1838 में सर्वे करने वाले ब्रिटिश अधिकारी Montgomery Martin ने लिखा कि मस्जिद के पिलर मंदिर से लिए गए हैं। मशहूर आर्कियोलॉजिस्ट केके मोहम्मद 1976-77 में विवादित ढांचे की हुई ASI जांच के समय टीम का हिस्सा थे। अपने बयान में वो कहते हैं कि एएसआई के पास इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि बाबरी मस्जिद से पहले वहां एक विशाल मंदिर था। बाबरी मस्जिद से एक शिलालेख भी मिला। इस शिलालेख का अनुवाद केवी रमेश ने किया। इस शिलालेख को विष्णु हरि शिलालेख कहा जाता है। इसके लिए केके मोहम्मद कहते है कि इस शिलालेख में लिखा है यह मंदिर उस विष्णु को समर्पित है, जिसने 10 सिर वाले को मारा है यानी रावण को मारा है और वो विष्णु जिन्होंने बाली का वध किया यानी कि राम। उन्होंने बताया कि यह शिलालेख 12वीं शताब्दी का है। यह दर्शाता है कि मस्जिद से पहले 12वीं सदी में वहां एक मंदिर हुआ करता था।