- फिल्म रिव्यू: Piku
- स्टार रेटिंग: 3.5 / 5
- पर्दे पर: 8 MAY, 2015
- डायरेक्टर: शूजित सरकार
- शैली: ड्रामा
कहानी क्या है-
पीकू (दीपिका पादुकोण) अपने कॉन्स्टिपेशन से ग्रस्त बूढ़े पिता भास्कर (अमिताभ बच्चन) के साथ दिल्ली में रह रही है। अपने खुशियों को दरकिनारे कर पीकू लगातार अपने पिता की सेवा में लगी रहती है जो उसकी शादी के भी सख्त खिलाफ है। एक दिन भास्कर की इच्छा होती है कि वो कोलकता में अपने पुश्तैनी घर में समय बिताए। पीकू अपने पिता की ये इच्छा भी पूरी करने के लिए तैयार हो जाती है लेकिन यहां पर भी पिता के पेट की प्रॉब्लम आड़े आती है। वो फ्लाईट या ट्रेन से नहीं बल्कि बाय-रोड सफर के लिए तैयार होता है। यहां आता है राणा चौधरी (इरफान खान) जो वैसे तो टेक्सी सर्विस कंपनी का मालिक है लेकिन क्योंकि उसकी कंपनी का कोई ड्राईवर तैयार नहीं है पीकू और उसके पिता की नखरे बर्दाश्त करने को, राणा खुद उनका ड्राईवर बन जाता है।
इसकी एक और वजह ये भी है कि राणा मन ही मन पीकू को चाहता है। तो कैसा रहेगा दिल्ली से कोलकाता तक का उनका सफर, क्या पीकू और राणा में नज़दीकियां बढ़ेंगी, और ये दोनों भास्कर के कॉन्स्टिपेशन की प्रॉब्लम से कैसे लिपटेंगें? जानने के लिए देखिए पीकू-
क्या है खास?
"एक उम्र के बाद उनमें जीने की शक्ति खत्म हो जाती है, हम उनको आगे की जिंदगी जीना सिखाते है", इरफान खान को आक्रोश में बोला गया दीपिका पादुकोण का ये डायलॉग इस फिल्म में हमारे माता-पिता, दादा-दादी और अन्य बड़ें-बुजुर्गों की वो स्थिति बयान करता है जो हममें से कई लोग शायद समझना ही नहीं चाहते। लेकिन निर्देशक शूजित सरकार जिन्होनें विकी डोनर और मदरास कैफे जैसी साहसी फिल्में बनाई है, पीकू के जरिए वो दिलों को छू जाने वाली बात बड़ी ही सहजता के साथ कह जाते है।
पिता खडूस है, बेटी स्वाभिमानी है और गुड़गांव में जॉब करती है, घर में नौकर है जो घर में काफी समय से काम कर रहा है। फिल्म के किरदार आपको किसी के भी घर में मिल जाएंगे। बस फर्क ये है कि यहां पर बेटे और बहू की जगह एक बेटी पिता के बुढ़ापे का सहारा बनी हुई है।
यहां शूजित सरकार के साहस की तारीफ करनी होगी कि वो एक बेटे और बहू को जिम्मदारी न देकर एक बेटी के जरिए उन्हीं को एहसास दिलाते है कि माता-पिता की जिम्मेदारी उनकी है। शूजित कहीं भी जबरदस्ती अपनी ये सोच हम पर थोंपते नहीं, बस आम बातों से इसे हम तक पहुंचाते है।
उन्हीं बातों में हंसी के फुंवारे है, साथ ही 'इमोश्न से मोशन' कैसे जुड़ा होता है उसकी बायोलोजी और केमेस्ट्री की व्याख्या है, जिसे अमिताभ बच्चन के जरिए हंसी मज़ाक के साथ की गई है। बिग बी खडूस आदमी का किरदार बखूबी निभाते है। उनका बचपना और अन्य बिमारियों को लेकर उनकी थ्योरी आपको गुदगुदाती है।
दीपिका पादुकोण एक फ्रस्ट्रेटेड लड़की के किरदार में बिल्कुल फिट बैठती है। गुस्सा, मज़ाक और अलग-अलग भाव को वो अच्छे से बैलेंस करती है।
इरफान खान भी काफी स्वाभाविक अभिनय करते नज़र आते है।
क्या है कमज़ोर कड़ियां?
फिल्म की गति बहुत ही धीमी है। कई-कई मौकों पर आपको उबासियां भी आ जाए तो चौकिएगा नहीं। बाप और बेटी की नोक-झोंक से कभी-कभी आप ऊब भी जायेंगे।
आखिरी राय-
फिल्म का पेस स्लो होने के बावजूद आप इसमें इंट्रेस्ट नहीं खोते। फिल्म आपको कहा ले जाएगी ये बात आपको उत्साहित करती रहती है। पीकू और उसके पिता का रिश्ता आपको छू जाएगा और आपको कुछ जरूरी बातें भी सिखा जाएगा।