- फिल्म रिव्यू: Manjhi- The Mountain Man
- स्टार रेटिंग: 3.5 / 5
- पर्दे पर: 21 AUG, 2015
- डायरेक्टर: केतन मेहता
- शैली: ड्रामा
केतन मेहता और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की जोड़ी से उम्मीदें तभी बढ़ गई थीं जब दशरथ मांझी पर बनी फिल्म मांझी - द माउंटेन मैन का ट्रेलर आउट हुआ था। फिल्म में वाकई में वो अचंबा कर देने वाली भावना है जिसे ट्रेलर में देखा गया था।
फिल्म का हर पहलू आपको चौकाता है चाहे वो अभिनय हो, करीने से लिखे गए उसके डायलॉग्स या फिर पटकथा। हिम्मत और साहस की मिसाल कायम करते हुए केतन मेहता की मांझी कुछ कड़वी सच्चाइयों से आपको रुबरू करवाती है लेकिन इन सबसे ऊपर ये आपको हर पल प्रोत्साहित करती है।
कहानी है बिहार के घेलौर गांव की जहां दशरथ मांझी अपने पिता की बदहाली भरी जिंदगी से बालअवस्था में ही भाग जाता है लेकिन फिर कुछ साल बाद फिरसे वहां लौट आता है। यहां पता चलता है कि फगुनिया (राधिका आप्ते) से उसका रिश्ता बचपन में ही तय हो गया था लेकिन बुरी आर्थिक स्थिति के चलते फगुनिया के पिता रिश्ता तोड़ने पर उतारु हो जाते हैं। फगुनिया और मांझी एक-दूसरे से प्रेम करते हैं और ऐसे में वो घर से भागकर शादी कर लेते है। दोनों की दिनचर्या ठीक चल रही होती है तभी फगुनिया गर्भवती होने के बावजूद एक ऊंचे पहाड़ का सफर तय करती है लेकिन वो फैसला गलत साबित होता है। फगुनिया पहाड़ से गिर जाती है और उसकी वहीं मौत हो जाती है। उस पहाड़ को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मान बैठा मांझी उसे धराशायी करने का संकल्प ले लेता है लेकिन क्या वो ऐसा कर पाएगा, ये जानने के लिए आपको करना होगा सिनेमाघरों की तरफ अपना रुख।
एक आदमी की ऐसी क्या सनक होगी की वो जीवन भर एक पूरे पहाड़ को तोड़ने में लग जाए? केतन उस सनक का मतलब समझाते हैं इस फिल्म के जरिए। उसकी सनक के आगे प्रकृति भी मजबूर है। अकाल के चलते एक सीन में जब सारे गांव वाले गांव को छोड़कर चले जाते हैं तो मांझी अकेला शक्स होता है जो अपनी जिद के आगे किसी की नहीं सुनता। दिन-रात उसका संघर्ष जारी है लेकिन है तो वो भी इंसान ही। धैर्य साथ छोड़ रहा होता है लेकिन उसकी हिम्मत नहीं। बिना खाए-पिये वो लगा रहता है अपने लक्ष्य को हासिल करने में और ये देख अंत में प्रकृति की मेहरबानी उस पर बरस ही जाती है।
केतन इन सब की टेक्निकेलिटीज को काफी अच्छी तरह के से पर्दे पर दिखाते है। यहां पर प्यार की भी अपनी परिभाषा है जो फगुनिया और मांझी के बीच काफी अच्छे से झलकती है। मांझी का अपनी फगुनिया को मनाना, हंसाना और उससे प्यार करना काफी मोहित करता है। सच्चाई के काफी करीब लेकिन पर्दे पर ये काफी नया है।
इसमें और जिंदगी भरते हैं नवाजुद्दीन सिद्दीकी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नवाज की ये अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। कई लोग उनकी हर फिल्म के बाद शायद ये बोलते ही होंगे लेकिन नवाज के अभिनय में हर फिल्म के साथ जो निखार दिख रहा है वो इस बात को सच साबित करता है। वो हर फिल्म के साथ हमें चौकाते हैं और इस बार भी वो ऐसा ही करते हुए दिख रहे हैं। शुरू से लेकर अंत तक वो अपने अभिनय से हमें बांध कर रखते है और हमारी वाह-वाही बटोरते है।
राधिका आप्ते भी एक गांव की छोरी में वो देसीपन लाती है जिसकी फिल्म को जरूरत थी। उनका बोलने का ढंग और उनके हाव-भाव फगुनिया में रंग भरते हैं।
दुनिया को अलविदा कह चुके अशरफ-उल-हक ने दशरथ मांझी के पिता के किरदार से अपने आपको अमर कर दिया है। फिल्म फुकरे के एक अमीर भिखारी के तौर पर पहचाने जाने वाले अशरफ को एक बेहतर और यादगार पहचान मिल गई है।
पंकज त्रिपाठी एक बेरहम और चालाक किरदार में फिरसे नजर आए हैं। उनको देखकर गैंग्स ऑफ वासेपुर की हल्की सी याद भी आ जाती है।
अंत में मैं ये कहना चाहुंगा की मांझी- द माउंटेन मैन एक शानदार बायोपिक है जो आपको कई मौकों पर हैरान करती है और अंत में आपको प्रेरित करती है। साल की बेहतरीन फिल्मों में से एक है मांझी। उन्हीं के शब्दों में कहे तो ये है 'शानदार, जबरजस्त, जिंदाबाद'।