- फिल्म रिव्यू: दिल बेचारा
- स्टार रेटिंग: 3 / 5
- पर्दे पर: July 24, 2020
- डायरेक्टर: मुकेश छाबड़ा
- शैली: रोमांस/ड्रामा
सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद उनके फैंस के साथ साथ दुनिया भर के फिल्म दीवानों को उनकी जिस आखिरी फिल्म का इंतजार था, वो रिलीज हो गई। हमने देखी और ठीक सुशांत को जेहन में रखकर देखी। अब सुशांत इस दुनिया में नहीं है लिहाजा उनकी फिल्म को यूं भी कोई खराब तरीके से जज नहीं कर पाएगा। दूसरी खास बात ये कि उनकी जिंदगी की आखिरी फिल्म उनकी रियल लाइफ का आइना निकली। अगर सुशांत जिंदा होते तो भी फिल्म के कई दृश्य आपकी आंखों में आंसू ले आते। कई दृश्य आपको जिंदगी की सीख दे जाते। इसे संयोग कहें कि दुर्योग, एक जिंदादिल इंसान असल जिंदगी में विदा लेने के साथ साथ अपनी आखिरी फिल्म में भी उतनी ही जिंदादिली से विदा लेता है सिनेमाहॉल में अगर ये फिल्म रिलीज हुई होती तो कइयों की आंखें गीली होने की खबर फैल गई होती।
चलिए फिल्म की बात करते हैं, कहानी ऐसे राजा (सुशांत सिंह राजपूत) और रानी (संजना सांघी) की है जिनकी जिंदगी मौत को करीब आते महसूस कर रही है। बंगाली लड़की किजी बासू और मैनी दोनों को कैंसर है, प्यार होता है और राजा की जिंदादिली के चलते रानी भी जीना सीख जाती है। पहले राजा मरता है लेकिन वो रानी को रोते हुए छोड़कर नहीं जाता, उसकी जीना कैसे है ये हम तय करते हैं, वाली सीख रानी को अपने बचे हुए दिनों को जिंदादिली से जीना सिखा देती है।
मर गया राजा खत्म कहानी...इस इतनी सी कहानी में सुशांत सिंह ने दुखांत भाव की सभी पुरानी फिल्मों को एक साथ जिया है। चाहे आनन्द हो, चाहे शाहरुख की कल हो न हो..जिस जिस फिल्म में राजा मरा है, उनमें जीवन की सबसे गहरी सीख सुशांत सिंह दे गए हैं।
फिल्म आपको रुलाएगी और अगले ही पल हंसाएगी। ये हंसी प्रफुल्लित करने वाली भले ही न हो लेकिन उस कथानक में जहां लगभग हर राजा रानी मरने का इंतजार कर रहे हैं, अंदर तक महसूस होती है। सुशांत ने हर सीन में कमाल के भाव दिखाए हैं। उनकी हंसी, मुस्कुराहट, आंखों को मींच कर बोलना, जिंदादिली, रजनीकांत जैसा बनने की शिद्दत सब कुछ वैसा ही लगता है जैसा वो रियल जिंदगी में दिखते थे। लगता ही नहीं कि वो एक्टिंग कर रहे हैं। वो मौत के साए में बनी इस फिल्म में आनन्द थे, जो कह रहे थे कि बाबू मोशाय, मेरे जाने के बाद भी हंसी रहेगी, खुशी रहेगी..उसने रहना होगा क्योंकि जीना कैसे है ये हमें तय करना है।
बाकी चीजों की बात की जाए तो म्यूजिक अच्छा है, सुमधुर टाइप का। 'मैं तुम्हारा' गाना बंगाली टोन में गाया गया है इसलिए रसगुल्ले सी मिठास आ रही थी, बिलकुल परिणीता जैसी। बाकी गाने भी ठीक ठाक हैं। सत्यजीत पांडे की सिनेमेटोग्राफी भी अच्छी है..कई सीन काफी जानदार बने हैं।
अब बात करते हैं अन्य किरदारों की। संजना सांघी ने काफी शानदार काम किया है। किजी की मां बनी स्वास्तिका मुखर्जी और पिता बने शाश्वत चटर्जी ने भी बढिया काम किया है। ऐसी एकलौती बच्ची के मजबूर मां बाप जिन्हें पता है कि वो मरने वाली है। उनके चेहरे पर आते चिंता, भावुकता, मजबूरी, प्रेम के रंग देखने लायक हैं। फिल्म में दो मिनट से भी कम समय के लिए सैफ अली खान भी हैं लेकिन वो कहीं से भी प्रभावित करने में कामयाब नहीं हो पाए।
खास बात ये है कि फिल्म देखते वक्त वही फीलिंग आ रही थी कि सुशांत सच में मरने वाले हैं। इसे संयोग कहें कि दुर्योग, मुकेश छाबड़ा की फिल्म का कथानक और अंत सुशांत की रियल लाइफ से इतना मिलता जुलता निकला है कि कई जलखुड़े, बवाली टाइप्स के लोग सुशांत की मौत को मुकेश की साजिश भी बता दें तो कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए।