Sunday, February 16, 2025
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डिटेक्टिव ब्योमकेश बख्शी

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Published : April 07, 2015 3:30 IST
Detective Byomkesh Bakshi
Detective Byomkesh Bakshi
  • फिल्म रिव्यू: Detective Byomkesh Bakshi
  • स्टार रेटिंग: 3.5 / 5
  • पर्दे पर: 3 APRIL, 2015
  • डायरेक्टर: दिबाकर बनर्जी
  • शैली: सस्पेंस

क्या है कहानी

कलकत्ता का अजीत बंद्योपाध्याय (आनंद तिवारी) दो महीने से लापता अपने पिता की तलाश में है और सारे जतन करने के बाद वो पहुंचता है डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी (सुशांत सिंह राजपूत) के पास जो है तो खडूस मिजाज़ का पर बातों में उसकी चतुराई और सूझ-बूझ का कोई जवाब नहीं।  न कहते-कहते ब्योमकेश इस केस को आखिर में अपने हाथों में ले लेता है।

लापता पिता की गुत्थी सुलझाते हुए उसकी मुलाकात होती है अंगूर देवी (स्वास्तिका मुखर्जी), चीनी माफिया और भारत की आजादी के लिए संघर्ष करते कुछ क्रांतिकारियों से। इस दौरान कुछ हत्याएं भी होती हैं जिससे ये गुत्थी सुलझने की बजाए और उलझती जाती है। ऊपरी तौर पर जो केस बाहर से बडा आसान सा लग रहा होता है अंदर से वो उतना ही जटिल और खतरनाक है।

तो क्या ब्योमकेश बक्शी अपनी सूझ-बूझ से रहस्य को सुलझा पाएंगे य़ा फिऱ ये केस उनकी ज़िंदगी का आखिरी केस बन कर जाएगा। जानने के लिए देखिए डिटक्टिव ब्योमकेश बक्शी।

क्या है सफलता के मूल मंत्र -                                               

अगर हॉलिवुड की शर्लाक होम्स आपकी पसंदीदा सस्पेंस सिरीज़ में से एक है तो बॉलिंवुड की ब्योमकेश बक्शी आपको जरूर पसंद आएगी। भारत के कोलकता का ये डिटक्टिव शर्लाक होम्स की तरह सूट-बूट में नहीं रहता है। वह सफेद धोती, हरा कोट और स्पोर्टस जूते पहनकर बड़ी सहनशीलता और वैसी ही चतुराई के साथ बड़े-बड़े रहस्यों से एक-एक कर पर्दे हटाता है।

चालीस के दशक की पृष्ठभूमि पर फ़िल्माई गई डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी को बड़े पर्दे पर देखना उतना ही रोचक है जितना इसके मूल लेखक शरदिन्दु बंद्योपाध्याय की लिखी रहस्यमई कहानियां को पढ़ना और दूरदर्शन में दर्शाए गए एक धारावाहिक 'ब्योमकेश बक्शी' को देखना। एक डिटक्टिव की ही तरह आपको फिल्म देखने के दौरान चौकस रहना पड़ेगा। अगर आपका ध्याना भटकता है तो ये फिल्म आपको बोरिंग भी लग सकती है। फिल्म में मनोरंजने के नाम पर गाने नहीं परोसे गए है लेकिन इसका बैकग्राउंड स्कोर कमाल का है। निर्देशक दिबाकर बैनर्जी की फिल्मों में रॉक म्यूज़िक का इस्तेमाल बखूबी देखा गया है जो फिल्म के द्रश्यों मे जान डालता है। डिटक्टिव ब्योमकेश बक्शी जो 1940 के समय को दर्शाती है उसमें इस तरह के संगीत का अद्भुत मेल है और वो काफी शानदार लगता है।

फिल्म को और रोचक बनाता है कलाकारों का अभिनय। सुशांत सिंह ऱाजपूत डिटेक्टिव के किरदार को बहुत ही सहजता से निभाते है और ये शायद उनका अब तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय  है। आनंद तिवारी, स्वास्तिका मुखर्जी, दिव्या मेनन सहित कई नए कलाकारों का जीवंत अभिनय फिल्म में जान डाल देता है।

मजा किरकिरा क्या करता है-

दिबाकर ने सेटिंग्स तो 1940 के कोलकता की रखी है लेकिन भाषा हिंदी और वो भी आज के समय की रखी है लेकिन शायद ये दर्शकों की समझ के लिए जरूरी था। फिल्म की गति कही-कहीं धीमी भी पड़ जाती है जिससे लोगों का ध्यान भटक भी सकता है। भोजपुरी भाषा का उपयोग भी बेवह लगता है।

आखिरी राय-

ये फिल्म हम भारतीय दर्शकों को पहला डिटक्टिव देती है जिसपर हम गर्व भी कर सकते है। इसे देखें मिस न करें!

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