- फिल्म रिव्यू: Bombay Velvet
- स्टार रेटिंग: 3 / 5
- पर्दे पर: 15 MAY, 2015
- डायरेक्टर: अनुराग कश्यप
- शैली: पीरियड
क्या है कहानी?
बलराज (रणबीर कपूर) एक बड़ा और कामयाब आदमी बनना चाहता है और खमबाता (करण जौहर) इसमें उसकी मदद करता है। खमबाता उसे बलराज से जॉनी बलराज बनाता है और नाईट क्लब ‘बॉम्बे वेल्वेट’ की जिम्मेदारी देता है, जिसमें बलराज अपनी सुरीली महबूबा रोज़ी (अनुष्का शर्मा) को मुख्य आकर्षण बनाता है। तब तक सब कुछ ठीक चल रहा होता है जब तक कि बलराज को ये नहीं पता चलता कि खमबाता उसे सिर्फ इस्तेमाल कर रहा है। यहां बलराज का अहम उसे कोसता है और वो बराबरी की हिस्सेदारी के लिए खमबाता से दुश्मनी मोल ले लेता है। ये दुश्मनी उन्हें आगे कहां ले जाएगी?, जानने के लिए देखिए बॉम्बे वेल्वेट।
क्या है खास?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अनुराग कश्यप की ये फिल्म उनकी बाकी फिल्मों से काफी अलग और भव्य है। इसकी वजह है बॉम्बे वेल्वेट की निर्माण लागत और इसमें शामिल कलाकार। और यही कारण है कि फिल्म रूपहले पर्दे पर शानदार भी दिखती है और आपको आकर्षित भी करती है।
आजादी के ठीक बाद के बॉम्बे को फिल्म बॉम्बे वेल्वेट में खूबसूरती से दिखाया गया है। सुबह के उजियारे में वो दमकता है वहीं हल्की नारंगी रोशनी और रोज़ी की सुरीली आवाज़ (अमित त्रिवेदी के शानदार संगीत की बदौलत) से वहां की शाम गुलज़ार होती है।
इसी गुलज़ार शाम में रोज़ी और बलराज का प्यार पनपता है और सही मायने में बॉम्बे वेल्वेट रोज़ी और बलराज की एक प्यारी सी लव स्टोरी ही है जिसे अनुराग कश्यप बड़ी ही खूबसूरती के साथ हमारे सामने पेश करते हैं। हालांकि इस कहानी में कामयाबी की ललक भी है और बड़ा बनने के लिए किसी भी हद को पार कर जाने का पागलपन भी।
बलराज और रोज़ी के प्यार को इन सभी कसौटियों पर परखा जाता है जो रणबीर और अनुष्का के कमाल के अभिनय की बदौलत पर्दे पर हकीकत के करीब दिखाई पड़ता है। वो लड़ते भी हैं, वो भी इस हद तक कि एक-दूसरे के ऊपर हाथ उठाने से बाज़ नहीं आते लेकिन उसमें भी एक-दूसरे के लिए परवाह छुपी होती है।
लेकिन हर कहानी की तरह यहां पर भी प्यार के दुश्मन हैं, एक नहीं बल्कि कई सारे। अभिनय की दुनिया में पहली बार कदम रखने वाले करण जौहर, इस फिल्म में एक बड़ी कॉर्पोरेट पर्सनेलिटी की भूमिका में हैं। खमबाता के किरदार में वे बॉम्बे के मजबूर लोगों को कुचलकर अपनी एक अलग ही दुनिया बनाना चाहते हैं। इस किरदार को वो ठीक निभाते हैं लेकिन आगे भी अगर वो अभिनय जारी रखने की सोच रहे हैं तो उनको अभिनय की बारीकियों पर काम करने की ज़रूरत है।
क्या बिगाड़ता है मज़ा?
अफसोस है कि अनुराग की बाहर से इतनी भव्य दिखने वाली फिल्म में कहानी ही सबसे कमज़ोर कड़ी है। इतिहासकार ज्ञान प्रकाश की किताब ‘मुंबई फेबल्स’ (जो बॉम्बे को मुंबई में तब्दील होने की कहानी बयान करती है) से अनुराग कश्यप कुछ ही अंश उठाते हैं। 60 और 70 के दशक में कॉर्पोरेट और सरकार की मिलीभगत को फिल्म पर्दे पर उजागर करती है लेकिन उसमें स्पष्टता की बड़ी कमी है।
रोज़ी और बलराज की लव स्टोरी में कई बातें कहीं गुम सी हो जाती है और कई सवालों का जवाब हम आखिर तक ढूंढते ही रह जाते हैं। फिल्म ढ़ाई घंटे से ऊपर की है और इसमें हल्के-फुल्के मजाक की भी कमी है जिस वजह से शायद आपका सब्र जवाब दे सकता है।
के.के. मेनन एक पुलिस अफसर के किरदार में नज़र आते हैं लेकिन अपने दूसरे फिल्मी किरदारों के मुकाबले यहां वो हमें प्रभावित नहीं कर पाते। शायद अच्छी कहानी की कमी इसकी बड़ी वजह है।
आखिरी राय-
तमाम खामियों के बावजूद रणबीर-अनुष्का का अभिनय हमें फिल्म में बांधे रखता है। वहीं दूसरी तरफ मुंबई की खूबसूरती को आप बड़े पर्दे पर ही देखें तो अच्छा होगा। मुंबई या फिर यूं कहें कि बीते ज़माने के बॉम्बे को जिस तरह से अनुराग कश्यप ने फिल्माया है वो काबिल-ए-तारीफ है।