Highlights
- स्वतंत्रता का असर फिल्मों पर भी नजर आया
- हालांकि बंटवारे ने इंडस्ट्री को भी तोड़ा और नुकसान किया था
- लेकिन इसके बाद हिंदी सिनेमा ने पीछे मुड़कर नहीं देखा
Indian Cinema growth on 75 years of independence: हमारे देश में सिनेमा का इतिहास 100 साल से अधिक पुराना है। जहां मूक फिल्मों से शुरुआत हुई और बोलती फिल्में फिर रंगीन सिनेमा फिर VFX की एंट्री और फिर आज तक का सफर शामिल है। लेकिन इन दिनों हम आजादी के 75 साल पूरे होने का जश्न मना रहे हैं। इसलिए आज हम बात करेंगे आजादी के बाद से अब तक के भारतीय सिनेमा के सफर की। इन 75 सालों में भारतीय फिल्म जगत की कहानी, गाने, संगीत, पटकथा, तकनीक सभी कुछ बदला है। वहीं सिनेमा देखने का अनुभव और फिल्मों के कथानक में भी बड़ा अंतर है। जहां तक सिनेमाई कहानी कहने का सवाल है, ओटीटी नया चर्चित शब्द है, यहां तक कि यह अब भी नियमों और सेंसर की पकड़ से बाहर है। हम यह भी नहीं जानते कि OTT वाला सिनेमा वह जीवित रहेगा या नहीं। तो आइए एक नजर डालते हैं आजादी के बाद के सिनेमा के सफर पर।
एक नजर आजादी से पहले के सिनेमा के इतिहास पर
19वीं सदी के मोड़ पर, लुमियर बंधुओं के कारनामों की बदौलत पूरे यूरोप में सिनेमा एक घटना बन गया, जिन्होंने पेरिस, लंदन, न्यूयॉर्क, मॉन्ट्रियल और ब्यूनस आयर्स जैसे दुनिया के प्रमुख शहरों में अनुमानित फिल्मों की निजी स्क्रीनिंग की। जुलाई 1896 में लुमियर फ़िल्मों को अंततः बॉम्बे (अब मुंबई) में प्रदर्शित किया गया। कुछ साल बाद, हीरालाल सेन नाम के एक भारतीय फोटोग्राफर ने एक स्टेज शो, 'द फ्लावर ऑफ फारस' के दृश्यों से भारत की पहली लघु फिल्म, 'ए डांसिंग सीन' बनाई। इसके बाद एच एस भाटवडेकर की 'द रेसलर्स' (1899) - मुंबई के हैंगिंग गार्डन में एक कुश्ती मैच की रिकॉर्डिंग से भारत की पहली डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाई। 1912 में, दादासाहेब तोर्ने ने 'श्री पुंडलिक' नाम की एक मूक फिल्म बनाई - एक लोकप्रिय मराठी नाटक की एक फोटोग्राफिक रिकॉर्डिंग। इसके एक साल बाद 1913 में, दादा साहब फाल्के ने भारत की पहली फीचर-लेंथ मोशन पिक्चर बनाई, यह मराठी में एक मूक फिल्म थी जिसका टाइटल 'राजा हरिश्चंद्र'। इसके बाद यह सफर रुका नहीं। 1913 के बाद से 1947 तक मराठी के साथ हिंदी, मलयालम, तमिल और बांग्ला सिनेमा जगत में भी खूब काम हो रहा था। पूरी दुनिया ने भारतीय सिनेमा को तब जाना जब बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) के साथ अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाई, जिसने 1946 और 1954 में कान फिल्म फेस्टिवल में ग्रांड प्रिक्स और प्रिक्स अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते।
बंटवारे में खूब हुआ था इंडस्ट्री का नुकसान
पहली नजर में हम स्वतंत्रता के बाद की इंडस्ट्री को देखें तो साल 1947 में कुछ समय के लिए ऐसा लगा कि ये इंडस्ट्री बंद हो जाएगी। क्योंकि जहां अब तक देश में एक इंडस्ट्री थी वहीं अब देश के दो हिस्से भारत और पाकिस्तान होने के बाद इंडस्ट्री में भी इस बंटवारे का असर साफ दिख रहा था। उद्योग को अभिनेताओं, लेखकों और तकनीशियनों के मामले में भारी नुकसान हुआ, क्योंकि कई कलाकारों ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया। लेकिन इंडस्ट्री थमी नहीं यह चलती रही।
सिनेमा और विचारों को भी मिली स्वतंत्रता
कहना गलत नहीं होगा कि स्वतंत्रता के बाद, भारतीय सिनेमा कई गुना तेज गति से विकास की रफ्तार पकड़ने लगा। बंटवारे से हुए नुकसान को समझते हुए सरकार ने कुछ कदम उठाए। जवाहरलाल नेहरू द्वारा संचालित राष्ट्र निर्माण अभियानों से उद्योग को बहुत फायदा हुआ। क्योंकि, इनमें से कई अभियान फिल्मी सितारों के इर्द-गिर्द घूमते थे, जिनकी व्यापक अपील नेहरू द्वारा भारत के नेहरूवादी विचार के रूप में जाने जाने के लिए प्रोत्साहन देने के लिए की गई थी। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि हमने पिछले 75 वर्षों में एक राष्ट्र के रूप में एक लंबा सफर तय किया है। यही अंतर हमें सिनेमा में भी नजर आता है। ऐसा लगता है जैसे 75 साल पहले देश को ही नहीं हमारे सिनेमा को भी विचारों की और कथानक कहने की आजादी मिली थी।
फिल्मों पर दिखा स्वतंत्रता संग्राम का प्रभाव
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म समीक्षक, एम के राघवेंद्र ने अपनी किताब 'द पॉलिटिक्स ऑफ हिंदी सिनेमा इन द न्यू मिलेनियम: बॉलीवुड एंड द एंग्लोफोन इंडियन नेशन' में स्वतंत्रता के बाद हिंदी सिनेमा को लेकर बात की है। उन्होंने इसमें लिखा है कि स्वतंत्रता के बाद भारतीयों की कल्पनाशक्ति पर गहरा प्रभाव हुआ। पूरे देश को एक सूत्र बांधने लगा था जो था- भारतीय राष्ट्र। जाहिर है, आजादी के बाद के कुछ दशकों में हिंदी सिनेमा पर नेहरूवादी समाजवाद का प्रभाव देखा गया। हालांकि, अगर कोई इस अवधि के दौरान बनाई गई कुछ सबसे महत्वपूर्ण फिल्मों की बारीकी से जांच करने की कोशिश करता है जैसे कि राज कपूर की आवारा (1951), बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953), महबूब खान की मदर इंडिया (1957), और गुरु दत्त की प्यासा (1957) ), यह स्पष्ट हो जाता है कि इस अवधि की हिंदी फिल्में हमेशा नेहरू के भारत के दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं थीं। लेकिन, यह भी सच है कि अंदाज़ (1949), नया दौर (1957), और हावड़ा ब्रिज (1958) जैसी इस युग की अन्य महत्वपूर्ण फिल्में आधुनिक भारत के नेहरू के आदर्शों - आधुनिकता के अच्छे पक्ष से जुड़े द्वंद्व को चित्रित करने में सफल रहीं। डॉक्टरों, इंजीनियरों आदि के जरिए देश का विकास दिखाया गया और जुआरी, कैबरे डांस आदि के किरदार और सीन के जरिए बुरा पक्ष दिखाया गया है।
देश की बड़ी घटनाओं का असर सिनेमा पर
हिंदी सिनेमा पर औपनिवेशिक भारत में घटने वालीं बड़ी ऐतिहासिक घटनाओं जैसे कि चीन-भारतीय युद्ध का दर्दनाक सच, 1960 के दशक में देश में हरित क्रांति का उत्साह, इंदिरा गांधी की लगाई गई इमरजेंसी को दिखाने से नहीं चूका। इसके बाद 1960 के दशक में बढ़ती जनसंख्या और बेरोजगारी पर बात फिल्मों में देखी गई। 1977 के आम चुनावों में इमरजेंसी का 21 महीनों का खतरनाक दौर फिल्मों ने बखूबी दिखाया है। वहीं 1980 के दशक के दौरान खालिस्तान आंदोलन का असर भी भारतीय सिनेमा पर नजर आया। लेकिन 1990 के दशक से सिनेमा में व्यवसायीकरण की शुरुआत देख सकते हैं। यह वह दौर था जब पी वी नरसिम्हा राव के प्रधानमंत्री थे और उन्होंने वैश्वीकरण के साथ आर्थिक उदारीकरण के एक नए युग की शुरुआत की थी।
80-90 के दशक में आया बड़ा बदलाव
80 के दशक के अंत में और 90 के दशक की शुरुआत में मिस्टर इंडिया (1987), तेज़ाब (1988), क़यामत से क़यामत तक (1988), मैंने प्यार किया (1989), खिलाड़ी (1992) जैसी ब्लॉकबस्टर फिल्मों के साथ व्यावसायिक हिंदी सिनेमा को मजबूती मिली। डर (1993), मोहरा (1994), हम आपके हैं कौन..! (1994), करण अर्जुन (1995), दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे (1995), राजा हिंदुस्तानी (1996), दिल तो पागल है (1997), कुछ कुछ होता है (1998), प्यार तो होना ही था (1998), और मान (1999) ने बॉक्स ऑफिस पर नए रिकॉर्ड बनाए। इनमें से कई फिल्मों में अनिल कपूर, शाहरुख खान, सलमान खान, अक्षय कुमार, आमिर खान, अजय देवगन, माधुरी दीक्षित, करिश्मा कपूर और काजोल ने अभिनय किया। 21वीं सदी के मोड़ पर, राम गोपाल वर्मा, मधुर भंडारकर और अनुराग कश्यप जैसे फिल्म निर्माताओं के आगमन के साथ समानांतर सिनेमा में एक तरह का नए रूप में सामने आया। जिनके सिनेमा में मुख्य रूप से क्रिमिनल किरदार और समाज के डार्क साइड को दिखाया गया था। सत्या (1998), चांदनी बार (2001), कंपनी (2002), ब्लैक फ्राइडे (2004), और सरकार (2005) की सफलता हिंदी फिल्म दर्शकों के बदलते स्वाद का सबूत हैं।
नई सदी में नई 100 करोड़ी फिल्में
इस दौर में देखते हैं कि 2000 के बाद फिल्मों ने एक नया रूप अपनाया। अब एक नई दौड़ शुरू हो चुकी थी जो थी 100 करोड़ के क्लब में शामिल होने की दौड़। कभी खुशी कभी गम (2001) और नमस्ते लंदन (2007) ने ये शुरुआत की फिर ये सिलसिला अब तक जारी है। इसके बाद, विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप और तिग्मांशु धूलिया जैसे फिल्म निर्माताओं ने बिजली का मंडोला (2013), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), पान सिंह तोमर (2012) जैसी फिल्में बनाकर इंडस्ट्री का टेस्ट बदलने की कोशिश की। इस दौर में हिंदी सिनेमा ने राजस्व सृजन के मामले में नई छलांग लगाई, लेकिन रचनात्मक सोच के मामले में एक तरह का ठहराव दिखाई दिया। एक हिंदी फिल्म की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उसने '100 करोड़ क्लब' में प्रवेश किया या नहीं।
आज का हिंदी सिनेमा
अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, विशाल भारद्वाज और आनंद एल राय जैसे लोगों द्वारा शुरू की गई नई विधा के आधार पर, हिंदी फिल्मों ने बाद में हिंदी भाषी क्षेत्रों पर आधारित कहानियों पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। यह सच है कि मिस लवली (2012), तितली (2014), और मसान (2015) जैसी हिंदी फिल्में रही हैं, जिन्होंने कान्स में अन सर्टेन रिगार्ड सेक्शन में जगह बनाई है। लेकिन, हमारी फिल्मों को कान्स, बर्लिन और वेनिस जैसे दुनिया के प्रमुख फिल्म फेस्टिवल्स में जगह बनाने में लगातार मुश्किल हो रही है? यहां तक की 'लगान' के बाद से कोई भी फिल्म ऑस्कर के लिए नॉमिनेट नहीं हुई है।
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वेब और ओटीटी प्लेटफॉर्म की एंट्री
भारतीय सिनेमा में सबसे बड़ा मोड तब आया जब कई सारे ओटीटी प्लेटफार्मों देश में आए। आज, देश में इतने वैरायटी वाले दर्शक हैं कि फिल्म बनाने वाले निर्माता दर्शकों की पसंद के अनुसार अलग-अलग तरह की वेबसीरीज और फिल्में बनाने के लिए मजबूर हैं। COVID-19 महामारी ने OTT प्लेटफॉर्म को और बढ़ावा दिया है। सिनेमाघरों के अनिश्चितकाल के लिए बंद होने के कारण ज्यादा से ज्यादा दर्शकों ने अपना मनोरंजन का डोज यहां से लेना शुरू कर दिया। कई सालों से जहां सिनेमा अपने गरीब चचेरे भाई टेलीविजन पर हंस रहा था वहीं अब OTT ने सिल्वर स्क्रीन की चमक को टक्कर दी है। अब दर्शक OTT पर टेलीविजन / वेब सीरीज को 8 या 10 घंटे की फिल्मों जैसा लगातार अपने सोफे पर बैठकर एंजॉय कर सकते हैं। नेटफ्लिक्स और अमेज़ॅन प्राइम जैसी स्ट्रीमिंग एजेंसी ने भारतीय मूल के शो जैसे द फैमिली मैन, स्पेशल ऑप्स, सेक्रेड गेम्स, ब्रीद: इनटू द शैडो, इनसाइड एज और, हाल ही में, रे से लोगों का दिल जीता है। इनमें मुख्य भूमिकाओं में ज्यादातर ए-लिस्ट एक्टर नजर आते हैं। कहना गलत नहीं होगा कि OTT भारतीय मनोरंजन उद्योग के लिए बड़े पैमाने पर एक वास्तविक गेम चेंजर साबित हो रहा है। यह उन कुछ दैनिक धारावाहिकों के बिल्कुल विपरीत है जिन्हें हम वर्षों से भारतीय टेलीविजन पर देखने के आदी हो गए हैं। लेकिन इस चलन का एक दिलचस्प दूसरा पहलू भी है। अक्सर दर्शक सीजन खत्म करने की इतनी जल्दी में होता है कि वह अक्सर कुछ महत्वपूर्ण विवरणों को नजरअंदाज कर देता है। शायद, यह एक ऐसी कीमत है जिसे अधिकांश दर्शक चुकाने को तैयार हैं।
भारतीय सिनेमा है देश का दिल
तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीते 75 साल में भारतीय सिनेमा में इतना बदलाव हुआ है कि इसे चंद शब्दों में समेट पाना मुश्किल है। साथ ही यह बात भी सच है कि भारतीय सिनेमा देश के रहने वाले हर शख्स को छूता है, उसकी परेशानियों से लेकर उसके रिश्तों और सफलता-असफलता तक फिल्मों में नजर आती है। अब भारतीय सिनेमा को विदेशों में भी पहचान मिल रही है। कनाडा, जापान और चीन जैसे देशों में भारतीय फिल्में जमकर कमाई करती हैं। वहीं कान फिल्म फेस्टिवल में भी भारतीय फिल्मों का बोलबाला होता है।