निर्देशक: शशांक घोष
कलाकार: करीना कपूर, सोनम कपूर, स्वरा भास्कर, शिखा तलसानिया, सुमित व्यास
निर्माता: अनिल कपूर, एकता कपूर, रिया कपूर, शोभा कपूर
नई दिल्ली: दोस्ती अपने आप में सबसे बेहतरीन शब्द है और दोस्तों की महफिल में जब ‘गप्पेबाजी’ होती है तो शब्दों की परवाह नहीं होती और आज की जनरेशन में जहां ‘हर दोस्त जरूरी होता है’ वाला फंडा काम करता है, कुछ ऐसे ही दोस्तों की जिंदगी की कहानी को मिलाकर युवा फिल्म निर्देशक शशांक घोष अपनी नई फिल्म ‘वीरे दे वेडिंग’ लेकर आए हैं। यूं तो बॉलीवुड में लड़कों की दोस्ती पर ‘दिल चाहता है, ‘रॉक-ऑन’, ’याराना’, ’दोस्ताना’, ‘अमर-अकबर एंथनी’ और ‘थ्री-इडियट्स’ जैसी बेहतरीन फिल्में आई हैं लेकिन शशांक घोष ने अपनी फिल्म ‘वीरे दे वेडिंग’ में चार लड़कियों की दोस्ती, उनकी बिंदास सोच और जिंदगी को अपने नजरिए से देखने की कहानी को पटकथा को आधार बनाया है। फिल्म के किरदार मेट्रो शहर की ऐसी लड़कियों की कहानी है जो आभिजात्य वर्ग से हैं और हाई-फाई लाइफस्टाइल के साथ ही गप्पेबाजीं में गाली-गलौच से भी संकोच नहीं करती।
सेक्स जैसे विषय पर ये लड़कियां बिंदास बात ही नहीं सोच भी रखती है, सोलमेट की तलाश तो इनको रहती है लेकिन शादी और विवाहित जीवन की लाइफस्टाइल को सोचकर एक अनदेखे खौफ वाली फीलिंग भी इनके मन में चलती रहती है। लीव इन लाइफ को तो यह जीना पसंद करती हैं लेकिन शादी और ‘मंगलसूत्र’ इनके लिए थोड़ा हैरान और परेशान कर देने वाले शब्द है। अपनी जिंदगी को अपने हिसाब से जीने की तमन्ना रखने वाली इन आजाद ख्याल लड़कियों की जिंदगी में दु:ख को बांटने का अलहदा अंदाज भी दिखाने का प्रयास निर्देशक ने किया है।
जहां तक फिल्म के किरदारों की बात है तो यह ऐसी लड़कियों की कहानी है जो प्यार में तो रहना पसंद करती है लेकिन शादी करना और रिश्तेदारों की उम्मीदों पर खरा उतरने का प्रयास करते दिखना उनको अखरता है, फिल्म में कालिंदी (करीना कपूर) का किरदार कुछ ऐसी ही लड़कियों की कहानी कहता है। आज के दौर में कुछ लड़कियां ऐसी भी होती है जो अपना सोलमेट अपने बनाए हुए मापदंड के हिसाब से अपने आस-पास के संसार में खोजने की चाहत मन में रखती है,लेकिन जब उनकी मां उनके लिए कोई रिश्ता देखती है या इस पर बात करती है तो इस पर वह कुछ अलग ही टाइफ से अपना रिएक्शन देती है। फिल्म में अवनी ‘सोनम कपूर’ का किरदार कुछ ऐसा ही है। इसी तरह साक्षी स्वरा भास्कर जैसी लड़की की अपनी सोच है जो जिंदगी अपनी टर्म एंड कंडीशन पर जीना पसंद करती है। मीरा एक ऐसा किरदार है जो ‘इश्क’ में भागकर माता-पिता की इच्छाओं से परे जाकर विवाह तो करती है लेकिन रिश्ते के टूटने से परेशान है। सबकी अपनी-अपनी जिंदगी के किस्से है लेकिन जब यहीं चारों लड़कियां आपस में मिलती है तो एक दूसरे की जिंदगी के गम और खुशी को शेयर करते हुए उनका हल अपनी स्टाइल में तलाश करती है। जब ये साथ होती है तो इनकी गप्पेबाजी में गम भी कुछ देर के लिए हवा हो जाता है,वो कहते है ना दोस्ती की संसार होता ही कुछ ऐसा है।
जहां तक अभिनय की बात है तो करीना कपूर ने कालिंदी पुरी के किरदार में बेहतरीन नजर आई हैं,वहीं स्वरा भास्कर ने अपने किरदार के साथ पूरा न्याय किया है खासकर संवाद बोलने के दौरान उनका अपना जो अंदाज है वह बेहतरीन बन पड़ा है। इन सब बातों के बावजूद फिल्म निर्देशक शशांक घोष और फिल्म की निर्माता एकता कपूर ने फिल्म की पटकथा में जिस स्तर की भाषा का प्रयोग किया है उसे सिनेमाई तो नहीं कहा जा सकता, ऐसा लगता है बोल्डनेस और खुलेपन के नाम पर अधकचरे संवादों और गाली-गलौच को सिनेमाई ट्रीटमेंट जानबूझकर दिया गया है,बोले तो मुंबई और दिल्ली जैसे शहरों में आभिजात्य वर्ग की लड़कियों की जिंदगी को दिखाने के लिए ऐसा करना जरूरी है। ठीक है लड़के हो या लड़कियां दोस्ती में गप्पेबाजी के दौरान गाली देकर बात करना सामान्य सी बात है लेकिन उसको सिनेमाई संसार में इस तरह दिखाना न्यायसंगत तो नहीं कहा जा सकता,बोल्डनेस,सेक्स और वल्गर शब्दों के संसार में भी नीचे गिरने की एक सीमा होती है और ‘वीरे दे वेडिंग’ में शंशाक घोष ने उस लक्ष्मण रेखा को पार करने का प्रयास किया है क्योंकि फिल्म की निर्माता एकता कपूर को भी इस तरह के सिनेमा से कोई फर्क नहीं पड़ता है,क्योंकि उनको ऐसा लगता है कि यही आज के युवा समाज का सच है। रिलेशनशिप से जुड़ें कंटेट पर संजीदा होकर भी अपनी बात कहीं जा सकती थी लेकिन ऐसा लगता है ‘वीरे दे वेडिंग’ की टीम ने बॉक्स ऑफिस के बाजारवाद को ध्यान में रखते हुए इस बार अपने शब्दों से वह काम करने का प्रयास किया है जो कभी सिनेमा के परदे पर अभिनेत्रियों से अंग प्रदर्शन कराकर किया जाता था।
वैसे फिल्म की कहानी आज के युवा समाज को ध्यान में रखकर लिखी गई है तो इसे 18 से 24 साल का युवा वर्ग कनेक्ट हो सकता है। सेक्स संबधों पर खुलकर बात करती,पार्टी में नशे में झूमती और गप्पेबाजी में गाली-गलौच करती लड़कियां हो सकता है कुछ लोगों को अच्छी लगे और कुछ इस पर हैरानी भी जताए लेकिन ‘वीरे दी वेडिंग’ फिल्म बताती है कि इन सब बातों के बावजूद आज की जनरेशन बहुत उलझन में जिंदगी जी रही है। अपने फैसलों में किसी और को शामिल ना करने वाली जनरेशन एक अजीब से भ्रम का शिकार है,जिसे वह शायद दोस्तों के बीच शेयर करके अपनी टेंशन को कुछ देर के लिए दूर तो कर लेना पंसद करती हैं। फिल्म को ‘A’ प्रमाण पत्र मिला है और जिस प्रकार इसमें शाब्दिक भाषा का प्रयोग किया गया है उसे देखते हुए ‘वीरे दे वेडिंग’ को एक एडल्ट सिनेमाई अफसाना कहा जाना ठीक होगा।