नई दिल्ली: अलंकृता श्रीवास्तव की फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ आज रिलीज हो गई। फिल्म की कहानी अलग और रोचक है, इसमें महिलाओं की फैंटसी की दुनिया देखने को मिलेगी जो आपको मंटो और इस्मत चुगतई की कहानियों में पढ़ने को मिलती है। फिल्म में बहुत करीब से महिलाओं की जिंदगी के बारे में दिखाया गया है, लेकिन कुछ कारणों से यह फिल्म मुझे पसंद नहीं आई। मैं आपको वजह बताऊं उससे पहले ये बताती हूं कि फिल्म की कहानी क्या है।
फिल्म की कहानी भोपाल की है, जहां एक खंडहरनुमा इमारत में कुछ परिवार रहते हैं। बुआजी वहां की मालकिन हैं, और बाकी वहां के किराएदार। जो घुटन फिल्म की नायिकाओं को है वही घुटन इस घर में भी दिखाई जाती है। सीलन भरे कमरे, गंदे बाथरूम, छोटे कमरे और उसमें बिखरे पड़े सामान और कपड़े। कुल मिलाकर आपको देखकर ही लगने लगेगा यहां कितनी घुटन है। एक उपन्यास 'लिपिस्टिक के सपने' की नायिका रोजी को सूत्रधार के रूप में पेश किया गया है। फिल्म में 4 नायिकाएं हैं।
एक बुआजी उर्फ ऊषा (रत्ना पाठक) जो एक 55 साल की अधेड़ महिला है जो कम उम्र में ही विधवा हो गई थी, लेकिन उसके मन में अभी भी ख्वाहिशें हैं। एक शादीशुदा महिला शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) जो घर चलाने के लिए और अपनी खुशी के लिए भी एक सेल्सवूमेन की जॉब करती है। वो अपने काम में बहुत अच्छी है लेकिन उसके पति के लिए वो सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट और बच्चा पैदा करने की मशीन है। तीसरी नायिका है लीला (अहाना), वो पार्लर चलाती है आत्मनिर्भर है, एक मुस्लिम लड़के से वो प्यार करती है जो एक फोटोग्राफर है। लीला उसके साथ भागकर दिल्ली जाना चाहती है, इस घुटन से आजाद होना चाहती है। चौथी नायिका है रेहाना (प्लाबिता बोरठाकुर), वो माइली सायरस जैसा बनना चाहती है। उसके घर का माहौल ऐसा है कि वो बिना बुर्के के घर से बाहर भी नहीं निकल सकती है, ऐसे में उसका माइली सायरस जैसा बनना शेर के दांत गिनने जैसा था।
यहां पढ़िए, 'लिपस्टिक अंडर माय बुर्का' का रिव्यू
अब बात करते हैं कि क्या मुझे नहीं पसंद आया। सबसे पहले बात रेहाना की ही करते हैं। उसके सपने चकाचौंध से भरे हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि उसके मां-बाप उसे किसी शादी में डांस करने से भी रोकते हैं क्योंकि इससे उनकी नाक कट जाएगी। बिना बुर्के को वो घर से बाहर भी नहीं निकल सकती है। वो अच्छा पढ़ लिख जाए इसलिए भोपाल के टॉप कॉलेज में उसका एडमिशन कराया जाता है, वहां वो अपनी आजादी एन्जॉय करती है। घर से वो बुर्के में निकलती लेकिन कॉलेज जाकर वो आजाद हो जाती। मगर एक लड़की की आजादी का मतलब क्या होता है? अगर घर में उसे जींस पहनने की इजाजत नहीं, लिपस्टिक नहीं लगा सकती तो क्या उसे चोरी करना चाहिए? फिल्म में दिखाया गया है कि वो मॉल से कपड़े, जूते और लिपस्टिक चुराती है। आधी रात को घूमती है, पार्टी करती है, उस लड़के से उसका अफेयर होता है, जो पहले ही उसकी एक फ्रेंड को प्रेगनेंट कर चुका होता है। इस तरह तो कहीं न कहीं ये फिल्म मां-बाप को सही ही साबित कर देती है और उनका डर भी सही ही साबित होता है कि लड़कियों को छूट देंगे तो वो बर्बाद हो जाएंगी। लड़कियों की आजादी के नाम पर उन्हें रेबल बना देना कहां तक सही है?
लीला (अहाना) की बात करें, तो उसका सपना भोपाल की तंग गलियों को छोड़कर दिल्ली जाकर रहना है। वो ब्वॉयफ्रेंड के साथ पूरी दुनिया देखने का सपना देखती है। लेकिन उसे ये नहीं मालूम कि जो उसे चाहिए उसके लिए उसे किस दिशा में जाना चाहिए। उसे लगता है कि उसका ब्वॉयफ्रेंड उसके सारे सपने पूरे कर देगा। लीला के अंदर मैच्योरिटी की कमी है। उसकी विधवा मां जो आर्टिस्ट के लिए न्यूड पोज देकर पैसे कमाती है वो अपनी बेटी का भला ही चाहती है, इसलिए अच्छे घर का लड़का देखकर उसकी शादी तय कर देती है। मगर क्या बीतेगी उस मां पर जो अपनी बेटी को सगाई वाले दिन पति को स्टेज पर छोड़कर ब्वॉयफ्रेंड के साथ सेक्स करती देखेगी? अगर उसके अंदर सगाई वाले दिन किसी और के साथ संबंध बनाने की हिम्मत है तो शादी के लिए ना कहने की हिम्मत क्यों नहीं है? और जब ब्वॉयफ्रेंड साथ नहीं देता है तो मंगेतर के साथ भी वो शादी से पहले संबंध बनाने की कोशिश करती है। लेकिन क्या बीतेगी मंगेतर पर जब वो उसके फोन में एक्स ब्वॉयफ्रेंड के साथ उसका एमएमएस देख लेगा जो उसी की सगाई वाले दिन का ही होता है। यहां भी वही बात है, कि आजादी और अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने का मतलब ये तो कत्तई नहीं होता कि आप किसी और को धोखा दें। इस केस में भी फिर से मां सही है, जो चाहती है कि बेटी शादी करके घर बसा ले उसकी तरह बेटी की जिंदगी नर्क न बने।
अब विधवा बुआजी की बात करते हैं। 55 की उम्र में और विधवा होकर शारीरिक जरूरत के बारे में सोचना भी इस समाज के लिए पाप जैसा है। लेकिन ऊषा की ख्वाहिशें और उसके अंदर का तूफान जिंदा है। वो सस्ते या यूं कहें अश्लील उपन्यास पढ़ती है। उसके अंदर स्विमिंग सीखने की ख्वाहिश जागती है, वो सीखती है। यहां तक सब ठीक था, उसे स्विमिंग कोच से क्रश हो जाता है, ये बात भी सामान्य है, लेकिन उसके अंदर की चिंगारी को हवा मिल जाती है और वो कोच से रात को फोन पर अश्लील बातें करने लगती है। कोच को जिस लड़की से क्रश होता, उसे लगता है वही लड़की उससे बात करती है, लेकिन एक दिन कोच को पता चल जाता है कि उससे इस तरह की बातें करने वाली कोई लड़की नहीं बल्कि 55 साल की बुआजी हैं। वो आकर पूरे हवामहल के लोगों को ये बात बता देता है और बुआजी को अपमानित करता है।
फिल्म के सिर्फ एक किरदार से मुझे सहानुभूति होती है वो है शिरीन (कोंकणा सेन शर्मा) का किरदार। उसके अंदर टैलेंट है, वो उसका बखूबी इस्तेमाल करती है, आगे बढ़ती है उसका प्रमोशन भी होता है, लेकिन पति को ये सब गवारा नहीं है। पति का खुद तो बाहर अफेयर चल रहा होता है मगर वो नहीं चाहता पत्नी घर से बाहर भी कदम रखे। वो बोलता भी है, ‘बीवी हो, शौहर बनने की कोशिश मत करो।’ बीमार हो या थकी हो उसके पति को फर्क नहीं पड़ता उसे उसकी बीवी सिर्फ सेक्स ऑब्जेक्ट लगती है, तीन बच्चा और तीन अबॉर्शन के बाद वो बीमार रहती है लेकिन उसके पति को इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ता था। एक लड़की होने के बावजूद शिरीन के किरदार को छोड़कर मुझे किसी से सहानुभूति नहीं होती है।
जिस घुटन भरे माहौल से ये नायिकाएं आजाद होना चाहती हैं, वो अंत तक उन्हें नहीं हासिल होती। अंत में भी नायिकाएं घुटकर रह जाती हैं।
फिल्म में कुछ बार-बार सेक्स सीन दिखाया गया है, जिसे कम किया जा सकता था। अगर सीन को प्रतीतात्मक तरीके से दिखाया जाता तो और भी प्रभावी लग सकता था।
हो सकता है कि वास्तविक जिंदगी का सच इससे भी बुरा हो और फिल्म की निर्देशक अलंकृता इस तरह की महिलाओं से मिल चुकी हों, लेकिन एक लड़की होने के बावजूद ये फिल्म मुझे प्रभावित नहीं कर पाई, और फिल्म की किसी भी नायिका से मुझे जुड़ाव महसूस नहीं हुआ।
ज्योति जायसवाल @Jyotiijaiswal
(ये लेखिका के अपने विचार हैं, जरूरी नहीं इंडिया टीवी भी इससे सहमत हो।)
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