इस लेख में शैलेंद्र को हम बतौर एक ऐसे गीतकार के तौर पर याद करेंगे जिन्होंने सिने गीत लेखन के तमाम प्रचलित मुहावरों से हटकर अपना एक अलग रंग जमाया। जिसमें लोक का रंग, सादापन, लालित्य सबकुछ समाहित था। मेरे हिसाब से हर कलाकार के अंदर एक बागी की आत्मा निवास करती है जो उसे रूढियों और प्रचलन के विरुद्ध जाने के लिए बाध्य करती है। शैलेंद्र भी सचमुच में एक बागी गीतकार थे।
थियेटर की कोख से नए-नए जन्मे हिंदी सिनेमा के लिए उस समय ठेठ हिंदी में गीत लेखन के बारे में सोचना भी दुश्वार था। उर्दू और फारसी के अल्फाजों के बगैर संवाद लेखन से लेकर पटकथा लेखन और गीतलेखन की कतई गुंजाइश नहीं थी। लेकिन इप्टा और प्रलेस के लिए कलम चलानेवाला लेखक पारसी थियेटर के उस घिसे पिटे सामंती और उपनिवेशवादी चरित्र को कैसे आत्मसात कर सकता था। यूं तो उस समय शैलेंद्र के ज्यादातर साथी जो प्रलेस और इप्टा में उनके साथ थे, देर सबेर सिनेमा की ओर रुख किया लेकिन शैलेंद्र ही अकेले हैं, जिनके यहां सिने गीतलेखन के क्षेत्र में भाषा और शिल्प को लेकर नए प्रयोग मिलते हैं। कुल मिलाकर कह सकते हैं शैलेंद्र पहले गीतकार हुए जिन्होंने सिने गीत लेखन को आम जनों की जुबान में ढाला। यह घूंटी तो प्रलेस के सानिध्य में उन्हें पीने को मिली थी। जिसे कर्म क्षेत्र में उतारने में भी उन्होंने कोई कोताही नहीं की।
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प्रलेस के ज्यादातर साथी यथा- कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी सिने गीत लेखन के क्षेत्र में आए जरूर लेकिन भाषा के तौर पर ये सारे के सारे उसी फारसी और उर्दू की विरासत से निकले थे। हालांकि, अपने गीतलेखन में इन शायरों ने हिंदी और उसकी बोलियों के रंग का बाखूबी इस्तेमाल किया लेकिन सादगी, लोक और हिंदी का जो रंग शैलेंद्र जमाने में कामयाब हुए उसकी मिसाल नहीं। कैफी, साहिर और मजरूह जैसे गीतकारों ने भले ही अपनी अपनी शायरी में प्रलेस के मूल्यो को थोडा बहुत अपनाया लेकिन सिने गीत लेखन के क्षेत्र में वे पारसी थियेटर के गीत लेखन की परंपरा की कडी को ही मजबूती देते देखे गए। कहें तो देवनागरी लिपि में हिंदी की प्रतिष्ठा स्थापित कराने वाले शैंलेंद्र पहले गीतकार थे। हिंदी पट्टी यानी पूरब का रंग शैलेंद्र के बाद किसी के यहां नहीं देखने को मिला।गीतकार शैलेंद्र जयंती विशेष: उट्ठा है तूफान जमाना बदल रहा...
लोगों को ताज्जुब हो सकता है कि आखिर रावलपिंडी में पला बढा एक इंसान अपने सिने गीतों में पूरब का इतना बेजोड रंग कैसे ढाल सकता है। आखिर कलाकार तो कलाकार होता है उससे यही जादुई प्रयोग की अपेक्षा भी की जाती है। लेकिन इसके पीछे असली राज तो यह है कि शैलेंद्र के दादाजी यानी केसरीलाल का संबंध बिहार से था। बचपन के कुछेक दिन भी उनके मथुरा में ही गुजरे। अपने पुरखों की धरती बिहार की खुशबू से लबरेज शैलेंद्र की रावलपिंडी, मथुरा और बंबई की यायावरी ने ही तो उनके व्यक्तित्त्व में उर्दू हिंदी यानी गंगा जमुनी तहजीब की इतनी सम्मिलित मिठास भर दी। जो उनके गीतों के माध्यम से आज भी श्रोताओं को पूरबा बयार सी शीतलता प्रदान कर रही है। लेकिन उस शीतलता में भी बसती है टीस, भेद जानने की आतुरता, चुभन, कसक, अव्यक्त का दर्द।
महान गीतकार शैलेंद्र की जयंती (30 अगस्त) पर विशेष
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार सिनेमा और संगीत के गहन अध्येता हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं।)