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जयंती विशेष: गीतों की न थमने वाली बरसात थे शैलेंद्र

राजकपूर की फिल्मों में एक विश्वास की डोर जो कभी नहीं टूटी वह थी प्यार के सहारे जिंदगी को हसीन बनाने का व मुरझाए होंठों पर फूल खिलाने का।

Written by: Ajeet Kumar @AjeetKumarhisua
Updated on: August 30, 2021 14:46 IST
Shailendra- India TV Hindi
Image Source : FACEBOOK/DINESH SHANKAR SHAILENDRA जयंती विशेष: गीतों की न थमने वाली बरसात थे शैलेंद्र

बरसात में राजकपूर, शैलेंद्र, हसरत, शंकर और जयकिशन एक दूसरे से मिले लेकिन उनकी एक दूसरे की गजब पहचान ने भारतीय सिनेमा को कितनी महत्वपूर्ण उपलब्धियां दी। यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। बरसात वह फिल्म थी जिसने फिल्म संगीत को बिल्कुल नई ताजगी और जिंदगी प्रदान की। घिसे पिटे बोलों, उबाऊ शास्त्रीयता और प्रचलित मुहावरों (बंगाली लोकगायन, पंजाबी ठेका) के उलट श्रोता पहली बार भारतीय और पश्चिमी वाद्य यंत्रों के अदभूत आर्केस्ट्राइजेशन और रिद्म से उपजी स्वर लहरी में झूमकर अभिभूत हुए।

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मेलांकली और मेलोडी का जो रंग बरसात के गीतों में उभरकर आया वह पहले हिंदी फिल्म में कभी नहीं देखा गया था। रागों को फ़िल्मी गीतों में उतारने का तरीका भी शंकर जयकिशन का नायाब था। उनके संगीत में पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्रों का प्रयोग भी सबसे ज्यादा देखने को मिले। कुछेक रागों को लेकर तो शंकर जयकिशन की सिद्धहस्तता इतनी थी कि राग और वे एक दूसरे के पूरक हो गए। भैरवी एक ऐसा ही राग था। सदा सुहागन इस राग में दोनों ने हिंदी सिनेमा को सर्वाधिक रचनाएं दी। एक समय तो शंकर और जयकिशन को लेकर एक अलग भैरवी यानी शंकर-जयकिशन भैरवी कहने तक का प्रचलन हो गया था।

पश्चिम की धुनों का भी शंकर जयकिशन ने अपनी फिल्मों व रचनाओं में प्रयोग किया। आखिर उनकी ईमानदार मेहनत और लगन का ही यह परिणाम था कि उनके ये प्रयोग हमेशा विलक्षण बनकर उभरे। मेलांकली और दर्द भरे गीतों को रिद्मिक बनाने की शुरुआत भी यहीं से हुई। कहें तो आरके के संगीत में मेलांकली और मेलोडी ऐसे अविकल प्रवाहित होती थी जिसका अहसास थमने के बाद ही शुरू होता था। आखिर मेलांकली की सही तस्वीर एसजे के गीतों में ही देखने को मिलती है। अव्वल तो शंकर जयकिशन के यहां जिंदगी कभी ठहरी मिलती ही नहीं। और दुख और सुख तो इसी जिंदगी के दो पहलू हैं। फिर दुख को बांध के उसे और गंदला और विगलित करने में वे विश्वास क्यों करते। उन्हें तो विश्वास था दुख और दर्द का बरसात की बूदों सा पवित्र होने में। जीवनदायिनी बनाने में, सृजन का आधार रचने में। आरके बैनर की सिनेमा का भी यही मूल मन्त्र था। तभी तो व्यवस्था विरोधी और समाजवादी मूल्यों में आस्था के बावजूद आरके बैनर की फिल्मों में पलायनवाद की जगह हमेशा एक नई आशा और विश्वास देखने को मिला।

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राजकपूर की फिल्मों में एक विश्वास की डोर जो कभी नहीं टूटी वह थी प्यार के सहारे जिंदगी को हसीन बनाने का व मुरझाए होंठों पर फूल खिलाने का। बरसात के दर्दीले गीतों जैसे मैं जिंदगी में हरदम रोता ही रहा हूं..., बिछड़े हुए परदेशी एक बार तो आना तू..., अब मेरा कौन सहारा... और छोड गए बालम मुझे हाय अकेला छोड गए... से पहले क्या दर्द भरे गीतों को कोई तेज धुनों पर सजाने की सोच सकता था। कहें तो फिल्म बरसात का संगीत ही पूरी तरह से बरसात की माफिक था जिसने श्रोताओं के अहसासों को जी भर के भिंगोया और निचोड़ा। भौतिक व आध्यात्मिक, दिल व दिमाग, तन व मन या कहें भारतीय व पश्चिम, गजब का संयोग और समन्वय था आरके बैनर के संगीत में। और समन्वय के बगैर एक सच्चे और संपूर्ण कलाकार की कल्पना तक नहीं की जा सकती। ठीक इसी साल महबूब खान की फिल्म अंदाज भी प्रदर्शित हुई थी। संयोग से इस फिल्म में भी राजकपूर दिलीप कुमार के साथ नरगिस के अपोजिट नायक की भूमिका में थे। फिल्म के लिए संगीत दिया था तब के सबसे ज्यादा मशहूर संगीतकार नौशाद अली ने। जब फिल्म के प्रदर्शित होने के बाद नौशाद अली ने संगीत पर निर्माता निर्देशक महबूब खान की प्रतिक्रिया मांगी तो उन्होंने बाहर हो रही बरसात की ओर इशारा करते हुए जबाव दिया, "लेकिन आपके गानों को तो बरसात ने धो डाला"। महबूब खान की इस टिप्पणी से आप इस बात का अंदाजा लगा सकते हैं कि फिल्म बरसात का संगीत उस समय कितना लोकप्रिय हुआ था। लेकिन बरसात के गीतों से शैलेंद्र के गीत लेखन की अद्वितीय प्रतिभा या उनकी प्रयोगात्मकता और गीत सौंदर्य से कोई साक्षात्कार नहीं होता। हां शैलेंद्र ने इस फिल्म के गीतों में इतनी बानगी जरूर पेश कर दी कि गीतकार के तौर पर उनका रेंज गजब का है। और वे सिचूएशन के हिसाब से जल्दी से जल्दी सार्थक गीत लिख सकते हैं।

शैलेंद्र ने इस फिल्म के माध्यम से यह भी जता दिया कि सिनेमा के लिए गीत लेखन बंद कमरे में कविता सृजन के बराबर नहीं है। शंकर जयकिशन ने बरसात में पहले से ही तैयार धुनों पर गीतकार से गीत लिखवाने की रिवायत भी डाली। बाद में अपनी ज्यादातर फ़िल्मी गीतों के लिए शंकर जयकिशन यही प्रयोग अमल में लाते रहे। हालांकि गीतकारों की बिरादरी को तब यह चलन बहुत नागवार गुजरा था। और वे इसे गीतकारों के उपर संगीतकारों की श्रेष्ठता से जोडकर देख रहे थे। लेकिन शैलेंद्र एक प्रोफेशनल गीतकार थे और उन्होंने माध्यम की जरूरत को बखूबी अपनाते हुए अपना श्रेष्ठतम देने का प्रयास किया। और उसमें वे पूरी तरह से सफल भी रहे।

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आरके बैनर के संगीत का जादुई अहसास सिर्फ सुरों की बाजीगरी की बिना पर नहीं था। बल्कि शब्द, संगीत और गायिकी यानी गीतकार, संगीतकार और गायक की प्रतिभाओं के एकाकार होने में था। इस बात की मिसाल तो इसी में है कि मुकेश जैसे सीमित रेंज के गायक की आवाज को भी शंकर जयकिशन ने राजकपूर को उधार देने की हिम्मत जुटाई और वे इसमें बेहद कामयाब हुए। आरके बैनर ही सही मायने में प्रयोगशाला से कम नहीं था। जिसमें संपादन, निर्देशन से लेकर गीत, संगीत और फ़िल्म के अन्य तकनीकी पक्षों को लेकर भी लगातार प्रयोग किए जाते रहे। और गीत लेखन को लेकर शैलेंद्र भी कभी कम प्रयोग करते नहीं दिखे।

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(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार सिनेमा और संगीत के गहन अध्येता हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं।)

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