लिखने की शुरूआत में ही मेरे सामने यह प्रश्न उठ रहा है कि आखिर शैलेन्द्र को कैसे याद करूं बतौर गीतकार या कवि। ऐसा इसलिए कि अगर मैं शैलेंद्र को बतौर कवि याद करता हूं तो आलोचकों की भौंहें तन सकती है। क्योंकि ये आलोचक तो दिनकर, बच्चन और गुप्त तक को कब के खारिज कर चुके हैं। और रही बात शैलेंद्र, नीरज, और भरत व्यास की तो इन सबको ये महानुभाव टिप्पणी के लायक भी नहीं समझते। खैर मैं यहां कवि के तौर पर शैलेंद्र को याद नहीं कर रहा हूं और इसकी जरूरत भी नहीं समझता। इसकी जरूरत तो साहित्य की कसौटी पर सिनेमा को कसनेवालों को होगी। मेरे हिसाब से सिनेमा अकेले में ही एक ऐसी सशक्त, स्वायत्त और संश्लिष्ट विधा है जिसका हर एक पक्ष अपने ही प्रतिमानों, अवधारणाओं और कसौटियों पर कसे जाने की योग्यता रखता है। और रही बात अगर भारतीय सिनेमा की तो इसे सिनेमा के प्रचलित यूरोपीय और अमेरिकी सिद्धांतों से अलग हटकर देखने की भी जरूरत होगी। ऐसा नहीं करने पर कभी भी शैलेंद्र जैसे गीतकार का वाजिब मूल्यांकन नहीं हो सकता।
हिंदी सिनेमा की बात बगैर गीत और संगीत के कभी पूरी हो ही नहीं सकती। कहें तो हिंदी सिनेमा ही क्या भारतीय जनमानस को ही संगीत से अलग कर देखा नहीं जा सकता। आम भारतीय जीवन का ऐसा कोई सोपान नहीं जिसका संगीत स्वागत नहीं करता हो। चाहे उसके कितने ही अलग अलग रंग हों। बधैया, लोरी, भजन, कीर्तन, चैती, होरी, दादरा, पूरबी, निर्गुण, बाउल, भटियाली, विदेसिया...जैसी अनेकों शैलियों में लोकजीवन के अलग-अलग सोपानों का रंग निरेखा जा सकता है। इतना ही नहीं अपने यहां लोरिक और बिरहा जैसी लोकगाथाओं के गायन का भी प्रचलन है। सामवेद से लेकर संस्कृत के नाट्य रूपक भी भारतीय जनमानस के साथ संगीत की अनिवार्यता और अविभाज्यता को ही तो प्रदर्शित करते हैं।
लोकजीवन के इसी देशज रंग और लालित्य को सिनेमा में प्रतिस्थापित किया अमर गीतकार शैलेंद्र ने। उस समय जब हिंदी सिनेमा पारसी थियेटर के रंग में पूरी तरह सराबोर था। बगैर फारसी और उर्दू का पाठ किए कोई संवाद लेखन, पटकथा और गीत की रचना के बारे में सोच भी नहीं सकता था। सिने संगीत पर भी पारसी थिएटर की शास्त्रीयता और उपशास्त्रीयता का गजब का असर था। लेकिन उस दौर के सिनेमा में नाटकीयता, भडकाउ साज सज्जा और बोझिल शास्त्रीयता के सिवा कुछ भी नहीं था। ठीक यही बात गीत लेखन को लेकर भी थी। पटकथा ज्यादातर ऐतिहासिक और मिथकीय पात्रों के इर्द गिर्द ही बुनी जाती थी। इसलिए गीत लेखन को लेकर प्रयोग या सामजिक मूल्यों के सहज प्रसार की कोई गुंजाइश नहीं के बराबर थी। कहो तो उस समय हिंदी सिनेमा का कोई अपना रंग ही नहीं था। था तो सिर्फ पारसी थिएटरों की उबाऊ और थक चुकी शैली का उबास रंग।
जो लोग हिंदी सिनेमा में गीत, संगीत और नृत्य की परंपरा को पूरी तरह से पारसी थियेटर की देन मानते हैं उन्हें यह जानना चाहिए कि भारतीय लोकजीवन में संगीत, गीत और नृत्य की परंपरा उस समय से है जब शास्त्रीय संगीत का कोई अस्तित्व नहीं था। संगीत का कोई भी जानकार आपको यह बता देगा कि लोकसंगीत सभी संगीतों की जननी है। हां पारसी थियेटर के बारे में इतना तो जरूर कह सकता हूं कि इसने सामंती और उपनिवेशवादी मूल्यों पर आधारित नाटकीय, दरबारी और बोझिल शास्त्रीयता से ओत-प्रोत संगीत का बोझ जरूर डाला हिंदी सिनेमा पर। लेकिन लोकमूल्यों और प्रगतिशील विचारों से कला के तमाम आयामों को रंगने की मुहिम भी उस समय जोर पकड रही थी। जहां लेखन के क्षेत्र में प्रगतिशील लेखक संघ समतामूलक विचारों को प्रसारित कर रहा था वहीं इंडियन पीपुल्स थियेटर यानी इप्टा अपनी विशिष्ट लोकशैली में जनमानस को दकियानूसी और सामंती विचारों का चोला उतारने के लिए प्रेरित कर रहा था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी सिनेमा को लेकर इटली में नव-यथार्थवाद दस्तक दे चुका था। और आपको जान लेना चाहिए कि शैलेंद्र भी हिंदी सिनेमा में अपने आगमन से पहले इप्टा के लिए ही काम कर रहे थे। साथ में थे शम्भू मित्रा, बलराज साहनी, ख्वाजा अहमद अब्बास, पृथ्वीराज कपूर, बिजोय भट्टाचार्या, उत्पल दत्त और सलिल चौधरी... जैसे समर्पित कलाकार। जो बाद में भारतीय सिनेमा के शीर्ष हस्ताक्षर बनकर सामने आए। अब आप सोच ही सकते हैं कि इप्टा के लिए अपनी कलम चलाने वाला क्या पारसी थियेटर के घिसे पिटे मुहावरे में अपने आपको कैद कराने के लिए तैयार हो सकता था... जबाव आएगा कभी नहीं। लेकिन आम जिंदगी की मजबूरी इंसान को अपने मूल्यों से दूर जाकर भी पैर टिकाने के लिए बाध्य करती है। यही शैलेंद्र के साथ भी हुआ।
हालांकि मजबूरी इंसान को समझौता करने के लिए तैयार कर लेती है फिर भी उसके अंदर का कलाकार और 'मैं' उसे उस प्रचलित मुहावरे में भी एक विशिष्ट रंग भरने के लिए उकसाता ही रहता है और इसमें वह कामयाब हो ही जाता है। शैलेंद्र क्या इप्टा के अन्य साथी कलाकारों को लेकर भी यही कहा जा सकता है। अपने अपने फनों के ये माहिर मुख्यधारा की सिनेमा में आए जरूर लेकिन अपने मूल्यों और पहचान से सिनेमा का नया सौंदर्यशास्त्र रचकर गए। तभी तो आज भारतीय सिनेमा का इतना विकसित रूप रंग आज आपके सामने है। इप्टा से संबद्ध शैलेंद्र के तमाम साथी फनकारों ने भारतीय सिनेमा को विश्व स्तर पर अलग पहचान दी और कला के इस अनूठे माध्यम को भारतीय लोकजीवन और यर्थाथ के रंग से सराबोर किया। सिर्फ इप्टा ही नहीं प्रगतिशील लेखक संघ के साथ भी शैंलेंद्र का लंबा संबंध रहा। लोक की जमीन पर अपने लेखन को उतारने का वैसे तो उनके पास नैसर्गिक (कुदरती) शऊर/शउर था लेकिन प्रलेस के साथी कलाकारों के सानिध्य में तेवर में लोक का रंग और चढा। कुल मिलाकर कहें तो शैलेंद्र के जनगीतकार ने इप्टा और प्रलेस में आकर अपना पूरा आकार लिया।
भारतीय भाषाओं के ज्यादातर शीर्ष लेखकों का संबद्ध उस समय प्रगतिशील लेखक संघ से था। कुछेक नामों को मै यहां पर लेना चाहूंगा यथा- सज्जाद जहीर, मुल्कराज आनंद, सआदत हसन मंटो, अली जावेद जैदी, फैज अहमद फैज, भीष्म साहनी, राजेंद्र सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, कैफी आजमी, कृष्णचंदर, साहिर लुधियानवी, अली सरदार जाफरी, मजरूह सुल्तानपुरी सरीखे......लेखक। उट्ठा है तूफान जमाना बदल रहा..... और तू जिंदा है तो जिन्दगी की जीत पर यकीन कर..... जैसे इप्टा के लिए शैलेंद्र के लिखे गीत तो उस समय लोगों की जुबान पर बदलाव और प्रगतिशील मूल्यों के बोल बनकर फूट रहे थे।
आखिर इसी इप्टा के लिए शैंलेंद्र जब अपना गीत जलता है पंजाब..... पढ रहे थे, श्रोताओं की कतार में बैठे राजकपूर पर इतना असर हुआ कि वे उनको अपनी फिल्मों के लिए गीत लिखने का आमंत्रण तक दे गए। लेकिन उस समय शैलेंद्र सिर्फ कलाकार थे। और सिर्फ एक कलाकार इसके लिए कैसे तैयार हो सकता था। सो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए। लेकिन एक कलाकार के साथ साथ एक पिता की भूमिका में आते ही उन्हें आखिर परिवार की गाडी चलाने के लिए राजकपूर के प्रस्ताव को स्वीकार करना पडा। और फिर राजकपूर ने आरके बैनर के लिए एक ऐसी टीम बनाई जिसने तीन चार दशकों तक लोगों का न सिर्फ जी खोलकर मनोरंजन किया बल्कि सिनेमा के माध्यम से मानवीय और सामाजिक मूल्यों के प्रसार का भी बीडा उठाया। जहां गीत लेखन में शैलेंद्र के साथ हसरत जयपुरी रखे गए। वहीं संगीत की जिम्मेदारी शंकर जयकिशन के कंधों पर डाली गई। इप्टा के साथी कलाकार ख्वाजा अहमद अब्बास को पटकथा लेखक की भूमिका में लिया गया। और गायक मुकेश को तो राजकूपर ने अपनी आवाज ही दे डाली।
-महान गीतकार शैलेंद्र की जयंती (30 अगस्त) पर विशेष
(लेखक: वरिष्ठ पत्रकार अजीत कुमार सिनेमा और संगीत के गहन अध्येता हैं| विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में सम-सामयिक विषयों पर लगातार लिखते रहे हैं।)