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इस बात पर मोहम्मद रफी की हो गई थी लता मंगेशकर से लड़ाई, 4 साल बाद नरगिस ने कराई दोबारा दोस्ती

मोहम्मद रफी की आज 39वीं पुण्यतिथि है, वो अब इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनके गाए गाने आज भी अजर अमर हैं।

Written by: Jyoti Jaiswal @TheJyotiJaiswal
Updated on: September 27, 2019 18:55 IST
मोहम्मद रफी-लता...- India TV Hindi
मोहम्मद रफी-लता मंगेशकर

कहता है कोई दिल गया, दिलबर चला गया

साहिल पुकारता है समंदर चला गया

लेकिन जो बात सच है, वो कहता नहीं कोई

दुनिया से मौसिकी का पयंबर चला गया

मशहूर संगीतकार नौशाद ने मोहम्मद रफी की याद में क्या खूब कहा था, यकीनन सुरों के पयंबर थे मोहम्मद रफी। उनकी जादूई आवाज हिंदुस्तान के करोड़ों दिलों में बसती है। एक वक्त ऐसा भी रहा जब रफी की आवाज से लोगों के दिन की शुरुआत होती थी, और रफी के सुरों के साथ ही रात ढलती थी। 38 साल पहले आज ही के दिन रफी साहब ने खुद को खामोश कर लेने का फैसला किया था लेकिन आज भी उनके तराने जेहन में गूंजते हैं 20 कहानियों में आज बात सुरों के शहंशाह मोहम्मद रफी की। वो अपने नगमों से जिंदगी पर छा गए.अपनी तानों से जहां वालों के दिलों को भरमा गए। जब तक दुनिया की इस महफिल में रहे.सात सुरों के साज पर 26 हजार गीत गा गए। कहा जाता है कि मोहम्मद रफी ने अपने गाए 26 हजार गीतों के जरिए कुल 517 तरह के मूड बयां किए.। नफरत की दुनिया में रफी की आवाज प्यार के साज से सजी थी। उनकी तान में अगर हुस्न अंगड़ाई लेती है.तो दर्द के मारों का गम भी रफी की आवाज की शबनम में धुल जाती है। 31 जुलाई 1980 को रफी साहब ने इस दुनिया को अलविदा कर गए, लेकिन आज भी जब छिड़ते हैं वो सुर, अपने गीतों में फिर से जिंदा हो उठते हैं मोहम्मद रफी।

गायकी के हर पैमाने पर रफी साहब की आवाज एकदम खरी उतरती थी। खुदा ने रफी साहब पर सुरों की नेमत दिल खोल कर बरसाई थी। रफी साहब की आवाज के साथ फिल्मी नगमों की रवानगी बदलती चली गई, परदे पर अदायगी का अंदाज बदलता चला गया। पहले जो गीत क्लासिकल म्यूजिक से बोझिल लगते। वो रफी साहब के सुरों के सांचे में ढल कर लोगों के दिलों में उतरते चले गए। 

मोहम्मद रफी की आवाज दुनिया को भले ही जादुई लगे लेकिन खुद रफी साहब के लिए ये इबादत की इल्तजा थी। इतने बड़े सिंगर बनने के बावजूद भी शोहरत का गुमान रफी साहब को कभी नहीं रहा। कहते हैं कि अपने हर नए गीत की रिकॉर्डिंग से पहले वो किसी नौसिखिए की तरह रियाज किया करते थे.लेकिन जब रिकॉर्डिंग स्टूडियों में होते तो एक ही टेक में पूरे गीत को रिकॉर्ड कर जाते थे।

रफी साहब के सुरों सजा ये सदाबहार गीत सूरज फिल्म का है.। साल 1966 में आई फिल्म सूरज में इस गीत को बॉलीवुड में जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेंद्र कुमार और वैजयंती माला पर फिल्‍माया गया है। हिंदी सिनेमा के अगर टॉप टेन रोमांटिक गीतों में इस गीत को भी शुमार किया जाता है.। शायद ही कोई शादी-ब्याह का जश्न हो जहां इस गीत को नहीं बजाया जाता हो।

रफी की आवाज ने अपने दौर के हर स्टार को सुपरस्टार बना दिया। फिल्मों में जब रोमानी गीतों का चलन बढ़ने लगा.तो संगीतकारों को रफी साहब की आवाज से ज्यादा मुफीद और किसी की आवाज नहीं लगती थी। कहा जाता है कि राजेन्द्र कुमार तो जुबली कुमार रफी के गाए सुपरहिट गाने की बदौलत ही बने थे। दरअसल राजेंद्र कुमार की फिल्मों में गाए रफी के गीत इतने हिट हुए, कि वो जुबली कुमार बन गए।

​​मोहम्मद रफी की आवाज को बॉलीवुड की सबसे गंभीर आवाजों में शुमार किया जाता है बावजूद उसके तूफानी गीतों को भी रफी साहब की आवाज की रवानगी देखते बनती थी। और ऐसे गानों के लिए उनके फेवरेट हीरो थे- शम्मी कपूर। कहते हैं कि शम्मी कपूर के लिए गाने की बात सुनकर ही खुश हो जाते मोहम्मद रफी शम्मी कपूर पर रफी साहब की आवाज इतनी फबती थी कि आगे चलकर शम्मी कपूर अपनी हर फिल्म में रफी साहब से गवाने की जिद करते। रफी साहब को लेकर शम्मी कपूर की दीवानगी का अलय ये था कि वो फिल्म की शूटिंग को छोड़ कर रिकार्डिंग स्टूडियो पहुंच जाते थे।

कहते हैं कि ब्रह्मचारी फिल्म के इस गीत के मुखड़ा और पूरा अंतरा रफी साहब एक ही सांस में गा गए थे। दरअसल शम्मी कपूर ने रफी साहब के सामने ऐसा करने की शर्त रख दी थी। और रफी साहब ने शम्मी कपूर की उस शर्त को ना सिर्फ कबूल किया बल्कि एक सांस में गीत गाकर पूरा भी किया।

जितने बेमिसाल गाने, उतने अनूठे थे रफी साहब के शौक। उनका सबसे पसंदीदा शगल था पतंग उड़ाना, रिकार्डिंग के बीच थोड़ी सी भी मोहलत मिलती, तो छत पर जाकर पतंग उड़ाने लगते। पतंगबाजी का शौक रफी साहब को लाहौर के दिनों से ही लगा था. लाहौर में उनके बड़े भाई का सैलून था। पढ़ाई के बाद खाली वक्त में मो. रफी लोगों की हजामत बनाते, लेकिन उनका शौक तो संगीत था। गले से निकलती इतनी मधुर आवाज कि सुनने वाले उस गीत में खो जाए.। इसकी प्रेरणा रफी साहब को एक भिखारी से मिली थी.।

लाहौर में मो. रफी छोटे मोटे जलसों में गाया करते थे।  ऐसा ही एक जलसे में मशहूर गायक के एल सहगल को गाना था। सहगल को सुनने उस जलसे में रफी भी गए थे। लेकिन सहगल साहब जब मंच पर आए, तो अचानक माइक खराब हो गया। माइक के बिना सहगल साहब ने गाने से मना कर दिया फिर जब तक माइक ठीक नहीं हुआ रफी साहब को गीत गाने का मौका मिला। रफी साहब का एक गाना खत्म हुआ, तो भीड़ दूसरे गाने के लिए शोर मचाने लगी। ये देखकर सहगल साहब भी हैरान थे. कुछ देर बाद जब माइक ठीक हुआ, सहगल साहब मंच पर आए और रफी को शाबासी दी।

के एल सहगल की शाबासी के बाद रफी पूरे लाहौर में मशहूर हो गए मोहम्मद रफी. अब उन्हें लाहौर रेडियो में गाने का मौका मिलने लगा और आगे चल कर लाहौर फिल्म इंडस्ट्री में  रफी को कुछ पंजाबी फिल्मों में गीत गाने का मौका मिला, लेकिन अपने सुरीले सपने को पंख देने के लिए मोहम्मद रफी साल 1944 में अपने बड़े भाई मोहम्मद दीन के साथ मुंबई चले आए, लेकिन कुछ अच्छा नहीं होता देख रफी साहब वापस लाहौर लौट गए। लेकिन रफी साहब एक बार फिर मुंबई आए इस बार उनकी मुलाकात संगीतकार नौशाद हुई।

सुरों की कसौटी पर खरे पाकर नौशाद ने उन्हें अपनी कोरस टीम में रख लिया हालांकि रफी साहब के शुरुआती गाने को उतने नहीं चले लेकिन 1952 में बैजू बावरा के जो गीत रफी की आवाज में सबकी जुबान पर चढ़ गए।

वो नौशाद थे, जिन्होंने रफी की आवाज में मौशकी का नाज देखा था। रफी आए, तो नौशाद हर फनकार को भूल गए।  रफी की सहज आवाज के सहारे शास्त्रीय संगीत को आम दर्शकों के लायक बनाना नौशाद के लिए आसान हो गया। गायकी की कोई खास ट्रेनिंग नहीं ली थी रफी ने, लेकिन उनकी आवाज में फिल्म संगीत लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा। बैजू बावरा के बाद 50 के दशक में नौशाद साहब ने आन, अमर, मदर इंडिया और मुगल-ए-आजम जैसी अपनी हर फिल्मों में कोई न कोई गीत मो. रफी से जरूर गवाया।

50 के दशक में देव आनंद किशोर कुमार के साथ और राजकपूर मुकेश की आवाज के साथ मशहूर हुए।  लेकिन रफी की आवाज को किसी सुपरस्टार की दरकार नहीं थी वो तो जॉनी वॉकर जैसे कॉमेडिन के लिए भी उतना ही बखूबी गा लेते थे, जितना किसी सुपरस्टार के लिए. वो जॉनी वॉकर से दोस्ती थी, जो रफी उनका हर गीत गाते, और हर गीत दर्शकों का पसंदीदा बन जाता। 

60 के दशक में रफी साहब का लता मंगेश्कर से विवाद भी काफी सुर्खियों में था दोनों की जोड़ी डुएल गीतों में सबसे ज्यादा सराही गई, लेकिन बहुत कम लोगों को पता होगा कि पूरे चार साल तक दोनों ने एक दूसरे से दूरी बना रखी थी। आखिर ऐसा क्या हो गया जो बात यहां तक पहुंच गई थी। आखिर रफी साहब ने लता के साथ गाना क्यों बंद कर दिया थेइसकी वजह थी गानों को लेकर मिलने वाली गायकों की रॉयल्टी। लता जी चाहती थीं, म्यूजिक डाइरेक्टर्स की तरह सिंगर्स को भी गानों की रॉयल्टी में हिस्सा मिलना चाहिए। जबकि रफी साहब की राय लता जी से इत्तेफाक नहीं रखते थे। रफी साहब का मानना था कि गायक को जब एक गीत के लिए जब मेहनताना मिल जाता है फिर रॉयल्टी में उसका कोई हक नहीं बनता।

1961 में फिल्म माया के गीत की रिकार्डिंग के दौरान लता और रफी के मतभेद सामने आए। रिकार्डिंग के बाद जब लता जी ने रफी साहब से उनकी राय पूछी, तो उन्होंने साफ मना कर दिया। तब लता जी ने उसी स्टूडियो में ऐलान किया- आगे से मैं रफी साहब के साथ कोई गीत नहीं गाऊंगी। लता जी नाराज होकर चली गईं। तब रफी साहब मुस्कराकर रह गए थे, जैसे उन्हें यकीन था- सुरों का रिश्ता यूं झटके में नहीं टूटा करता। कहते हैं कि पूरे 4 साल बाद नरगिस की कोशिशों से उनमें पैचअप हुआ।

60 के दशक के आखिरी बरसों में रफी साहब के सामने चुनौती बन कर सामने आए किशोर कुमार। फिल्म अराधना में जब रफी को हटाकर किशोर कुमार से गीत गवाए गए, तब इसे दोनों के बीच होड़ के रूप में देखा गया। 70 के दशक में रफी साहब ने गाने भले ही गाने कम गाए, लेकिन उनकी आवाज में न रोमांस की शोखी कम थी और ना ही मुहब्बत का दर्द।

26 हजार गीतों को अपने सुरों से सजाने वाले रफी साहब के लिए आस पास फिल्म का गाना आखिरी गीत साबित हुआ। इस गीत के म्यूजिक डायरेक्टर थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल। लक्षीकांत ने अपने एक इंटरव्यू में बताया था कि वो पच्चीस साल से रफी साहब के साथ काम कर रहे थे, लेकिन रफी ने कभी जाते वक्त ये नहीं बोला था कि जा रहा हूं। लेकिन इस गीत की रिकॉर्डिंग पूरी कर लो जाते समय ये बोलकर गए कि अब मैं चलता हूं।

कहा जाता है कि रफी साहब की तबीयत 31 जुलाई की सुबह से ही खराब थी। सुबह पड़े दिल के दौरे को एक बार नजरअंदाज कर चुके थे। रात आठ बजे अचानक उन्हें सीने में तेज दर्द की शिकायत हुई उन्हें फौरन माहिम के नेशनल अस्पताल में लाया गया। मगर अब तक दिल की धड़कनें थमने लगी थीं. रफी साहब को बॉम्बे अस्पताल में भर्ती काराय गया. वहां पेसिंग से उन्हें राहत मिली, हालत में सुधार के लक्षण दिखने लगे थे, लेकिन वो रात रफी साहब के लिए आखिरी साबित हुई। दिल का तीसरा दौरा पड़ा जो रफी साहब के दिल की धड़कनें हमेशा के लिए बंद कर गया।  उस दर्द के बाद आवाज की दुनिया हमेशा के लिए सूनी हो गई. उस रात मुंबई का आसमान भी जैसे आंसू बहा रहा था. मातम के आंसू अभी सूखे भी नहीं थे, सुबह रफी साहब का जनाजा निकाल दिया गया। आम लोग तो आम लोग, पूरी फिल्म इंडस्ट्री भी उस काफिले में शरीक थी।

ठीक 38 साल पहले आज की ही तारीख 31 जुलाई 1980 को उस आवाज के चले जाने के बाद हर आंख नम थी किशोर कुमार तो रफी साहब के पांव पकड़कर रो रहे थे। लाखों लोग रो रहे थे लेकिन रफी साहब अपने पीछे गीतों का वो गुलदस्ता छोड़ गए जो हिंदी सिनेमा को सदियों तक महकाते रहेंगे।

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