देखा जाए तो 70 के दशक में हिंदी सिनेमा वापस मिडिल क्लास की तरफ लौटा था और ये लौटना वाकई सुखद रहा था। इसी दौर की शानदार और अविस्मरणीय फिल्म थी 'रजनीगंधा'। मसाला फिल्मों से अलग एक सीधी-सादी मिडिल क्लास लड़की की प्रेम कहानी इतनी शानदार थी कि हर तरफ सराहा गया। मन्नू भंडारी जैसी साहित्यकार की कहानी 'यही सच है' पर आधारित पटकथा को बासु चटर्जी ने जैसे सोना बना दिया। कहानी लाजवाब थी और उसे उसी शानदार तरीके से फिल्म में पिरोया गया कि कहीं कुछ सुधार की गुंजाइश नहीं लगती।
कहानी है एक मिडिल क्लास लड़की दीपा (विद्या सिन्हा) की। फिल्म दीपा के मन में चलती प्रेम उलझनों को दिलचस्प अंदाज में दिखाती है। दीपा, संजय (अमोल पालेकर) से प्यार करती है। संजय बहुत ही प्यारा और सीधा सादा इंसान है। दोनों कुछ समय में शादी करने का भी प्लान बना रहे हैं। इसी बीच एक नौकरी के लिए इंटरव्यू के सिलसिले में दीपा मुंबई जाती है जहां वो एकाएक अपने पुराने प्रेमी नवीन (दिनेश ठाकुर) से मिलती है। दीपा, नवीन के व्यवहार और स्टाइल से प्रभावित हो जाती है। वो पाती है कि अब भी नवीन उसके लिए समय निकालता है, उसका ध्यान रखता है और उसके लिए सजग है। दूसरी तरफ संजय नहीं प्रेम दिखाता है। संजय के पास प्रेम को महसूस करवाने का वो टेंपटेशन नहीं है।
इसी दौरान दीपा का मन कभी नवीन तो कभी संजय की तरफ भटकता है। वो नवीन के प्रति आकर्षित हो उठती है, हालांकि नवीन अपने मुंह से ऐसा कुछ नहीं कहता कि दीपा को लगे कि वो भी दीपा के साथ अब भी जुड़ना चाहता है। मुंबई प्रवास के दौरान दीपा के मन में दो प्रेमियों को लेकर चल रहा द्वंद काफी शानदार तरीके से दिखाया गया है।
फिर दीपा नवीन से शादी करने का ठान लेती है। वो मुंबई से लौटने के बाद नवीन को पत्र लिखती है जिसमें प्रेम की अभिव्यक्ति की गई है। वो नवीन के पत्र का इंतजार करती है, नवीन का पत्र भी आता है लेकिन चार लाइनों में उसे नौकरी मिलने की बधाई दी गई है, बस। दीपा सोचती है कि क्या वो प्रेम नहीं था, भ्रम था, वो हताशा में डूब जाती है। लेकिन तभी इसके बाद संजय आता है, बेहद खुश, रजनीगंधा के महकते हुए फूलों के साथ। उसका हंसता निश्चल चेहरा देखकर दीपा उसे दौड़कर बांहों में भर लेती है। उसी क्षण दीपा सोचती है कि यही है सच्चा प्रेम, बिना दिखावे का, सुख का बंधन का।
लेकिन दिल्ली वापस आते ही जब वो संजय को देखती है तो उसे अहसास होता है कि वो भूल कर रही थी, संजय ही उसे सही और सच्चा प्रेम करता है। वो संजय ही है जो उसे सही से समझ सकता है। चमक दमक भरे प्रेम और स्वच्छंद प्रेम की अपेक्षा प्रेम का बंधन ही सबसे प्यारा बंधन है। पूरी फिल्म में रजनीगंधा के महकते फूल दीपा के मन में प्रेम को बदलते स्वरूप को दिखाते हैं।
फिल्म दिखाती है कि रूमानियत भले ही प्रेम दिखाने का एक तरीका हो सकता है लेकिन वास्तविक जीवन में आर्थिक, भावनात्मक सुरक्षा और आपसी समझ ही प्रेम का असल आधार है। प्रेम के कई रूपों को एक ही फिल्म में किस तरह समेटा जा सकता है, मन्नु भंडारी की ये कहानी इसकी मिसाल हैं। प्रेम का द्वंद, दो प्रेमियों के बीच तुलना करती और किसे चुनूं, इस द्वंद में कोई प्रेमिका क्या क्या देखती और परखती है, ये बखूबी दिखाया गया है।
'क्या हम एक ही वक्त में दो लोगों को नहीं चाह सकते।' दीपा टैक्सी में नवीन की बगल में बैठी ये बात सोचती है तो वो कहीं से भी प्रेम अपराधी नहीं लगती। वो दरअसल अपने जैसे हजारों लाखों सामान्य दिलों में बसे एक करोड़ों के सवाल को दोहरा रही है। प्रेम में प्रतिबद्धता अच्छी बात है, लेकिन एक वक्त में दो लोग अच्छे लग सकते हैं और समाज के बाहरी आवरण की बात छोड़ दी जाए तो प्रेम वो अव्यक्त धारा है जिसमें एक साथ दो चाह भी सुरमई अंदाज में बह सकती हैं।
फिल्म सही सवाल तो उठाती है लेकिन अंत में उसका एक जवाब भी देती है। क्या वाकई एक साथ दो लोगों की चाह रखना, बुरा है, अनैतिक है। प्लेटोनिक लव की व्याख्या जानने वाले इस पर तर्क कर सकते हैं कि भौतिक प्रेम की जलधारा कलुषित हो सकती है लेकिन मन वो चीज है जहां आप एक साथ दो चाह को रख सकते हैं। सच्चाई की बात की जाए तो एक वक्त में दो लोगों को चाहना ठीक वैसे ही है जैसे एक वक्त में दो फूलों की सुंदरता को देख पाना।
कलाकारों की बात करें तो विद्या सिन्हा की ये पहली फिल्म थी और अमोल पालेकर की पहली हिंदी फिल्म। लेकिन कहीं से भी इनका नयापन इनके किरदारों से झलका नहीं। बासु दा की तारीफ करनी पड़ेगी कि मध्यमवर्गीय प्रेमिका के मन में ही सारे द्वंद चला दिए। अमोल पालेकर की बात करें तो वो करियर के लिए फोकस्ड और टेंपटेशन से दूर लॉयल्टी वाले प्रेम पर विश्वास करने वाले युवक की भूमिका सहज तरीके से निभा गए।
गानों की बात करें तो इस फिल्म के गाने इतने मधुर हैं कि आज भी प्यार में पड़े लोग गुनगुनाते हैं। मुकेश का गाया गाना कई बार यूं ही सोचा है.. गजब का है। रजनीगंधा फूल तुम्हारे..बहुत ही प्यारा और शानदार बन पड़ा है।
आपको बता दें कि फिल्म बनने के बाद इसे कोई डिस्ट्रीब्यूटर नहीं मिल रहा था। छह महीनों तक फिल्म डिब्बे में पड़ी रही फिर बड़जात्या फिल्मस के ताराचंद बड़जात्या ने फिल्म को खरीद कर रिलीज किया। इसके बाद फिल्म ने न केवल सिल्वर जुबली बनाई बल्कि इसे कई अवार्ड भी मिले।