1970 के दशक में जहां फिल्मों में एंग्री यंग मैन के तौर पऱ अमिताभ बच्चन 'शोले', 'दीवार', 'मुकद्दर का सिकंदर' जैसी फिल्मों के जरिए हिट हो रहे थे। वहीं ठीक इसी के पैरेलल हृषिकेश मुखर्जी और बासु चटर्जी अपनी कहानियों के जरिए मिडिल क्लास लोगों की जिंदगियों को रुपहले पर्दे पर उकेरने की कोशिश कर रहे थे, ये शहरी और मध्य वर्ग के दर्शकों को जेहन में रख कर उन्हीं की कहानी को दिखाने की कोशिश थी। उस दौरान 'गोलमाल', 'चुपके-चुपके' और 'छोटी सी बात' जैसी फिल्मों में मध्यवर्गी जिंदगी की कड़ियों को जोड़ने का काम किया गया है।
'छोटी सी बात' हमारे आस पास 70 के दशक के एक मध्यम वर्गीय समाज की बनावट के साथ-साथ बुनावट की एक सही पेशकश है। फिल्म का नायक अरुण (अमोल पालेकर) मिडिल क्लास आदमी का एक शानदार उदाहरण है, जो रोजमर्रा की परिस्थितियों से जूझता और मुस्कुराने की कोशिश करता है! बस स्टॉप पर पहली नजर में किसी लड़की के प्यार में पड़ जाना ये हर आम इंसान के एक आम शगल में से एक है और ऐसी घटना अरुण के साथ भी घटती है।
शर्मीला अरुण, मुंबई के 'जैक्सन तोलाराम' कंपनी में सुपरवाइजर के रूप में काम करता है। रोजाना वह ऑफिस जाने के लिए बस से सफर करता है जहां वह प्रभा (विद्या सिन्हा) को देखता है। अरुण, प्रभा को पसंद करने लगता है और उसका बार-बार पीछा करता है लेकिन उसे अपनी बात कहने में कोई आत्मविश्वास नहीं नजर आता। जब अरुण को यह अहसास होता कि वह अपनी भावनाओं को जाहिर करने में थोड़ा कॉन्फिडेंट हुआ है, तभी प्रभा का दोस्त नागेश (असरानी) काम बिगाड़ने के लिए आ जाता है। प्रभा के लिए अपने प्यार को जीतने के लिए, अरुण विशेषज्ञ कर्नल जूलियस नागेंद्रनाथ विलफ्रेड सिंह (अशोक कुमार) की मदद लेने के लिए लोनावाला जाता है और प्रभा को अपने मोहपाश में बांधने का गुर सीखता है। क्या अरुण अपने इस प्लान में कामयाब हो पाएगा? क्या प्रभा से अपने दिल की बात कह पाएगा? इसी 'छोटी सी बात' पर फिल्म की कहानी गुजर-बसर करती है।
वास्तव में, फिल्म का विषय थोड़ा स्थितिजन्य है; यह दर्शकों को उन दिनों में वापस ले जाती है, जब ऑफिस में टाइपराइटर की खिटपिट के बीच लोग लाइव क्रिकेट कमेंट्री सुनने के लिए एक ट्रांजिस्टर के आसपास मंडराते थे। टेबल टेनिस शौकिया खेल और रेस्टोरेंट में लंच करना मैटीयलिस्टिक लाइफ स्टाइल की पहली सीढ़ी के सरिखे थी। 'छोटी सी बात' के निर्देशक बासु चटर्जी एक अद्भुत प्रतिभा थे। हृषिकेश मुखर्जी की तरह, वे ऐसी फिल्में बनाते थे, जो मध्यम वर्ग के लोगों के जीवन को दर्शाती थीं। इस फिल्म में सब कुछ सरल रखा गया था। डायलॉग, कैरेक्टर, सेट, और वेशभूषा सहित हर एक बारीकियां ममध्यवर्गीयता की प्रामाणिकता को दर्शाती हैं।
बासु चटर्जी ने 'अरुण' के किरदार को इतना आसान बना दिया है कि हर एक आम इंसान उसके इस स्वाभाव से इत्तेफाक रखे। स्पष्ट रूप से यह अमोल पालेकर की शानदार एक्टिंग के बिना यह संभव नहीं हो पाता। पालेकर की कॉमिकली मेलानोलिक परफॉर्मेंस लाजवाब रही है। वह कभी भी अपनी गहरी भावनाओं को स्क्रीन पर अधिक व्यक्त करने की कोशिश नहीं करते हैं वे अपने हर किरदार में उतने ही सहज रहते हैं जितना 'छोटी सी बात' में थे।
विद्या सिन्हा ने मानों एक मिडिल क्लास कामकाजी लड़की के किरदार में जान डाल दी है। बसों की लाइन में लगी, शिफॉन-सूती साड़ी में उनका दमकता सौंदर्य इस बात की तस्दीक करता है कि सुंदरता सिर्फ मॉर्डन कपड़ों की मोहताज नहीं है। विद्या सिन्हा ने फिल्म में एक ऐसी कामकाजी लड़की का किरदार निभाया है जो प्रेम और आकर्षण में फर्क करने के द्वंद में फंसी दिखती है। वो प्रेम करती है लेकिन समझ नहीं पाती, उस दौर में जाहिर तौर पर लड़कियां संकोची थी लेकिन इतनी भी नहीं कि घर से बाहर न निकलें या किसी से लिफ्ट न लें। वो सामान्य दिनचर्या में ही जिंदगी के सभी रंगों को जीती दिखती हैं। सहेलियों की चुहलबाजी, घूमना फिरना और लड़के को छेड़ना तक सब कुछ इतना सामान्य था कि एकबारगी दिल मे गुदगदी कर जाता है। उनका सादगी भरा सौंदर्य और सहज अभिनय आपका दिल जीत लेगा।
अशोक कुमार फिल्म 'कर्नल जूलियस नागेंद्रनाथ विल्फ्रेड सिंह' के रूप में नजर आए जो अरुण को जिंदगी के बदलते रंग ढंग और गुरों के बारे में सिखाते हैं। यूं कहें कि लव गुरु के तौर पर अरुण के प्यार को संवारने की कोशिश करते हैं।
पात्रों में 'छोटी सी बात' सीमित ही रही है, मगर इन किरदारों ने फिल्म में अपनी छाप छोड़ी। यदि फिल्म का सबसे छोटा किरदार भी अपनी मौजूदगी का असर डालता है तो यही एक अच्छी फिल्म की पहचान होती है, और 'छोटी सी बात' में हर किरदारों ने अपनी मौजूदगी का मतलब दर्ज कराया है।
फिल्म का म्यूजिक, फिल्म के मूड के अनुसार है। सलिल चौधरी के संगीत में 70 के दशक मॉडर्न और सॉफ्टनेस से लबरेज धुनों को तैयार किया है। फिल्म के गानों को नायक और नायिका के बीच फिल्माने बजाए इसे कंल्पनाशील बनाया गया है, यह फिल्म को यथार्थवादी बनाए रखने का सफल प्रयास है। फिल्मों में गाने को मनोवैज्ञानिक रंग देने का प्रयास किया गया है।सिनेमौटोग्राफी और आर्ट डायरेक्शन तीन दशक पहले मुंबई (बॉम्बे) के आम जीवन की एक सच्ची झलक पेश करने में सक्षम रहे हैं। वास्तव में, यह एक उत्कृष्ट फिल्म है जहां सब कुछ अपने सही परिप्रेक्ष्य में रखा गया है और फिल्म का मिजाज कहीं से भी परेशान नहीं करता है।
'छोटी सी बात' हर तरह के दर्शक को बेहतर ढंग से ट्रीट करती है। फिल्म में मनोरंजन के अलावा अरुण के किरदार में एक प्रेमी के मनोविज्ञान की सच्ची सूरत पेश करने की कोशिश की गई है। यह भारतीय सिनेमा में उत्कृष्टता का एक शानदार उदाहरण है। मूल अवधारणा और वास्तविक परिदृश्य पर बनी ऐसी विशुद्ध भारतीय फिल्में हमेशा याद की जानी चाहिए, क्योंकि 'छोटी सी बात' निश्चित रूप से एक कालातीत क्लासिक है।
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