कोई तो बात है कि हर हाल से उबर जाता है..
और कुछ खास नहीं, आम आदमी में...
हमारे मुल्क में आम आदमी यानी मिडिल क्लास आदमी जिसे 'कॉमन मैन' भी कहते हैं, इससे सटीक परिभाषा शायद और कहीं नहीं मिल सकती। कॉमन मैन भले ही अपने परिवार के लिए हीरो हो लेकिन कपड़ों और हाव भाव से वो दूसरों को कभी हीरो नहीं दिखता। ना सुंदर हीरोइन और ना बड़ी कार। ना बड़े स्कूल में पढ़ते बच्चे न बीवी के गले में हीरो का हार।
अभावों के दामन में चंद ख्वाहिशों के पैबंद लगाए ये कॉमन मैन हर महीने की पहली तारीख को सीमित तन्ख्वाह को पाकर यूं तसल्ली करता है मानों खुदा ने जन्नत दे दी हो। महीने के अंत में फिर फाके और इसी जीवन चक्र में आम आदमी की उम्र निकल जाती है।
सिनेमा चूंकि हमेशा से इंडिया की नब्ज रहा है। इसने समय-समय पर समाज को आइना भी दिखाया है और दिखाए हैं अनगिनत सपने। लेकिन बॉलीवुड के साथ दिक्कत ये रही है कि वो इंडिया में सबसे ज्यादा तादात वाले उस कॉमन मैन को प्रियारिटी पर लेना मानों भूल गया है, जो इसे हिट और सुपरहिट करवाने का माद्दा रखता है। वो सपने ज्यादा दिखाने लगा है। ये सपने ऊंचे, अमीर, सुविधासंपन्न जीवन के सपने है। रंगीन पिन्नी में लिपटी मीठी मीठी गोलियों से सपने एयरकंडीशन युक्त मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न खाते वक्त देखकर अच्छा लगता है, दिल हवा में उड़ता है, मुंह से वाह वाह और आह निकलती है लेकिन जब आप थिएटर से बाहर निकलते हैं तो वो सपने उसी मल्टीप्लेक्स के डोर पर ठिठकर खड़े हो जाते हैं, मानों वो आपके अपने नहीं है, आप जैसों के लिए नहीं है। इन सपनों को मल्टीप्लेक्स के दरवाजे या अपनी सीट के नीचे पॉपकॉर्न के खाली डिब्बे की तरह छोड़कर आना आपकी मजबूरी है क्योंकि वो आप जैसों के लिए नहीं थे।
थिएटर के अंदर एक हीरो को जी रहा युवक बाहर आने पर नौकरी के लिए तरसता लड़का है, जिसकी जेब में सीमित पैसे हैं। स्क्रीन पर लंबी गाड़ी में उड़ते हीरों को देखकर खुश होने वाले को थिएटर से लौटने के लिए आटो करना होगा, वही ऑटो जिसमें ऑटो वाला तीन की जगह में पांच लोगों को भेड़ बकरी की तरह ठूंस देता है। तब सिनेमा को कोसने का मन करता है। इसे किसने हक दिया, ढाई घंटे में लजीज व्यंजन की तरह सपने दिखाकर अगले ही पल यथार्थ से सामना करवाने का। हालांकि फैसला यूजर का है, लेकिन उसे ललचाता कौन है, यही सिनेमा ही ना।
इसी सिनेमा से दरकार है कि वो अपने आप को बदले जरा सा। जो आपकी फिल्मों को टिकट देकर खरीदता है, उसे भी तवज्जो दे, उसकी पृष्ठभूमि पर भी बनाए फिल्में, हर बार हीरो और गाड़ियों को हवा में उड़ाना कहां तक सही है। मिडिल क्लास के मुद्दों पर पिछले कुछ सालों में अच्छी फिल्में बनी है, भारत जैसे बड़े देश और बॉलीवुड जैसी बड़ी इंडस्ट्री के अनुपात में ये नाकाफी है।
कॉमन मैन को सही तौर पर सत्तर के दशक में पहचाना गया। तब के निर्देशकों ने मिडिल क्लास फैमिली और आम आदमी की छोटी छोटी बातों पर फिल्में बनाई। उनकी मानसिकता, परिवार, परिवेश को ध्यान में रखकर बना सिनेमा उस दौर में काफी हिट भी हुआ। सत्तर के दशक की ऐसी कई फिल्में हैं जिन्हें आज भी लोग कई कई बार देखते हैं। क्या सिनेमा को फिर से एक बार वही कवायद करने की जरूरत नहीं है?
वैसे भी ओटीटी युग में जनता की देखने और पसंद करने की प्रियारिटी से लेकर सब कुछ बदल गया है। किसे क्या देखना चाहिए ये जज करने की बजाय कौन क्या देख रहा है, इस पर गौर करेंगे तो सत्तर के दशक को याद करेंगे। रियलिस्टिक सिनेमा इसी आम आदमी के घर और मोहल्ले से उठाकर बनता है। इन गलियों मोहल्लों में घूमेंगे तो पता चलेगा, इस देश के हर घर में इतनी कहानियां है कि कहीं से कॉपी करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। ओरिजिनल कंटेंट की खान है आम आदमी की दुनिया। दुश्वारियों से लेकर अभावों तक और बिना हथियार जिंदगी से दो दो हाथ करने की जो कूवत आम आदमी में है वो किसी हीरो में नहीं होगी।
सत्तर के दशक की उन्हीं खास फिल्मों को इंडिया टीवी हर शुक्रवार आपकी नजर करेगा। एक से एक नायाब हीरे हैं बॉलीवुड की झोली में, जिन्हें लोग भूल चुके हैं. ऐसी ही शानदार फिल्मों की समीक्षा हम करेंगे और आपको यकीन दिलाएंगे कि बॉलीवुड के उस स्वर्णिम को फिर से जिए जाने की जरूरत है।
इस सीरीज को नाम दिया गया है, 'क्लासिक फिल्मों के क्लासिक रिव्यू'। इंडिया टीवी हर शुक्रवार आपको साठ, सत्तर और अस्सी के दशक के किसी एक ऐसे शाहकार से रूबरू करवाएगा, जो हवा हवाई न होकर यथार्थ के सिनेमा की पहचान बना हो। नई फिल्म की समीक्षा सब करते हैं, बॉलीवुड की खान में छिपी इन नायाब पुरानी फिल्मों की फिर से समीक्षा करने का बीड़ा हमने उठाया है। आप हमारे साथ बने रहिए ताकि बॉलीवुड के इन शानदार नगीनों से आप वाकिफ हो सके और आपको कुछ और शानदार देखने और पढ़ने को मिले।