‘बाहुबली’ : सिनेमा जिसे कहते हैं, गजब की स्टोरी टेलिंग … बेजोड़। अप्रतिम। अतुलनीय।
बाहुबली देखी। क्या भव्यता थी फिल्म की। उफ़...। राजमौली साहब एक काम करो। बालीवुड ही शिफ्ट हो जाओ आप। यहां के फिल्मकार भी कुछ सीख सकेंगे। फिर वही बात। यहां भी स्टोरी टेलिंग। बेजोड़। अप्रतिम। अतुलनीय। लोगों को बड़ा गिला रहता है कि ये कटप्पा ने बाहुबली को क्यों मारा। अगर न मारता तो क्या फिल्म थोड़ी और अच्छी नही हो जाती। दरअसल हमारा सिनेमा हैप्पी एंडिंग का आदी है। ‘फॉरेस्ट गंप’ अगर यहां बन जाए तो ये लोग उसमें भी टाम हैंक्स को इतना ताकतवर बना देंगे कि वो जीजस से उनका क्रास छीनकर अपनी जेनी को जिंदा कर लेगा। अगर कट्प्पा इस फिल्म की शुरूआत में ही बाहुबली को मार देता तो भी मुझे ये फिल्म उतनी ही खूबसूरत लगती।
मसान को तो भूल ही नही सकता
मसान को तो भूल ही नही सकता। रिचा चढ्ढा ने अभी तक का सबसे बेहतर अभिनय किया है। बनारस कई बार गया हूं। दशाश्वमेघ का घाट। उसकी सीढ़ियां। उसकी रात। मंदिर की घंटिया। सब देखी है। यहां ये भी होता है कि घाटों की सीढ़ियों पर बैठे-बैठे तकदीर मिल जाती है। हमेशा-हमेशा के लिए। विद्याधर पाठक यानि संजय मिश्रा ने जिस तरीके से काशी की मृत्यु का उत्सव मनाती पंडिताई को जिया है वो तो अदभुत है। जी हां। काशी मृत्यु को भी उत्सव की तरह देखती है। जीवन की इससे बड़ी शाश्वतता और कहां मिलेगी?मसान की देवी और उसका संघर्ष। इसे बांध पाना सबके बूते की बात नही। ये संघर्ष हमारी नसों में तैरता है। हमारे पैरों से बंधा होता है। चकरी की तरह। चाहे न चाहे हमारी आंखों के सामने नाच ही जाता है, एक दिन। एक रोज़। कुछ लड़ते हैं। कुछ खेत रहते हैं। बस इतनी सी कहानी है।
मांझी द माउंटेन मैन : वो मूवी है जिसे आप एक सांस में देख सकते हैं…बस सांस को थोड़ा लंबा कर लीजिए
मांझी द माउंटेन मैन भी देखी। नवाज़ुद्दीन सिद्दकी को देखकर हमेशा लगता है मुझे कि इंडस्ट्री को जवान नसीरूद्दीन शाह मिल गया है जिसकी आंखे, बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलिवरी, सभी कुछ बार-बार एक ही सवाल पूछती हैं- ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यूं आता है?’ आखिर क्यों? मांझी द माउंटेन मैन वो मूवी है जिसे आप एक सांस में देख सकते हैं। बस सांस को थोड़ा लंबा कर लीजिए। अगर न माने तो थोड़ी देर के लिए उसे सुला दीजिए। अगर सामने इतनी अच्छी मूवी चल रही हो तो सांसे गुज़ारिश करने पर कुछ देर के लिए सो भी जाती हैं। फिर कोई व्यवधान नही। कोई डिस्टर्बेंस नही। सब कुछ स्मूथ। नीरव। शांत।
इस पूरी कहानी में अगर एक फिल्म का ज़िक्र न करूं तो बात की डोर टूट सी जाएगी। ये फिल्म है मिस टनकपुर हाजिर हों। इस फिल्म से रिश्ता थोड़ा ज़ाती सा है। विनोद कापड़ी सर जो इस फिल्म के निर्देशक हैं, वो मेरे संपादक रहे हैं। इस फिल्म की मेकिंग से लेकर रिलीज तक बहुत कुछ जाना है। बहुत कुछ समझा है। विनोद सर की कल्पनाशीलता बेजोड़ है। उसे किसी भी तरह के सर्टिफिकेट की जरूरत नही है। बेहद कम बजट और संसाधनो में उन्होंने एक बेहद ही खूबसूरत कोशिश की। इस पूरी फिल्म में निर्देशक की संभावनाओं की एक नाव चलती नज़र आती है। सूखी ज़मीन पर भी। दलदली मिट्टी में भी। पानी के सोते में भी। यही इस फिल्म की सबसे बड़ी ताकत है। विनोद जी को आने वाले साल के लिए दिल से शुभकामना। साल 2016 का शिद्दत से इंतज़ार है। कुछ और नयी फिल्में। कुछ नए डायमेंशन। नए प्रतिमान। नई कामयाबियां। नई नाकामियां। उस नएपन के इंतज़ार में।
(इस ब्लॉग के लेखक युवा पत्रकार अभिषेक उपाध्याय, देश के नंबर वन चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं।)