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BLOG : ‘बाजीराव- मस्तानी’ न देख लेता तो ये हादसा न होता मेरे साथ

नई दिल्ली: अगर साल खत्म होते होते बाजीराव मस्तानी न देख लेता तो ये हादसा न होता मेरे साथ। पहली बार ऐसा हुआ है कि एक पूरा का पूरा साल सिनेमा के नाम पर चिपक मेरे ज़ेहन में।

Abhishek Upadhyay
Updated : December 31, 2015 17:30 IST
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नई दिल्ली: अगर साल खत्म होते होते बाजीराव मस्तानी न देख लेता तो ये हादसा न होता मेरे साथ। पहली बार ऐसा हुआ है कि एक पूरा का पूरा साल सिनेमा के नाम पर चिपक गया है मेरे ज़ेहन में। जैसे किसी ने ज़ेहन की पर्तों के बीच गाढ़ा हरा गोंद उड़ेल दिया हो और उपर से सिनेमा का फुल साइज़ पोस्टर चिपका दिया हो। गोंद हरा इसलिए क्योंकि मेरी आंखों में इस साल के सिनेमा को लेकर जो कुछ भी है, हरा-हरा सा है। कहीं कुछ भी सूखा नही है। बंजर नही है। बियाड़ नही है। सब कुछ हरा-भरा सा है। बाजीराव मस्तानी एक ऐसी फिल्म रही जिसके एक एक सीन पर मैं ठहरा हूं। हर बार ज़ेहन में एक ‘काश’ दौड़ गया। काश कि कोई इसे एक बार फिर से रिवाइंड करके दिखा दे। इससे पहले ऐसा एहसास मुगले आज़म के साथ हुआ था। इसके निर्देशक के आसिफ़ 1971 में गुज़र गए। मैं 1978 में पैदा हुआ। लिओनार्डो डि कैप्रियो की INCEPTION देखी थी। टारगेट के ‘सब कॉंशस’ (अवचेतन) में प्रवेश कर जाना और जरूरी जानकारियां जुटा लेना। के आसिफ के अवचेतन में क्या क्या होगा, ये सोचना ही कौतूहुल के सागर डुबो देता है। अगर के आसिफ से किसी भी तरह से साबका हो सकता तो उनसे सिर्फ इतना कहता कि जनाब “मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो रे”, के बारे में बोलते रहो आप। जितना बोल सकते हो। जितना भी बता सकते हो आप। नौशाद साहब से लेकर लता दी तक। मधुबाला तक। अपनी कल्पनाशीलता के बारे में। प्रतीकों के इस्तेमाल के बारे में। सेट, डिजाइन, लाइटिंग, कास्ट्यूम। सिनेमैटोग्राफी के बारे में। और जो कुछ भी छूट रहा हो, उसके बारे में। बस बताते ही जाओ।

मुझे कोई भी फिल्म अपनी कहानी के चलते अच्छी या बुरी नही लगती है। मेरा मानना है कि अधिकतर फिल्मों की कहानियां लगभग एक सही और बड़ी प्रेडिक्टबल सी होती हैं। पहले 10 मिनट की फिल्म देख ली जाए, तो क्लाइमैक्स अपने आप जुबां पर आ जाता है। बात तो स्टोरी टेलिंग की है। उस कहानी को बताते कैसे हो आप। समझाते कैसे हो। मेरी नज़र मे फिल्म देखने वाला दूध पीता बच्चा होता है। ऐसे ही दूध पीती बच्ची भी। उसे प्यार से समझा-बहला कर जो चाहो दिखा दो, जो चाहे मनवा लो। मगर ये प्यार से दिखाने, प्यार से समझाने का हुनर...। बड़ा दुर्लभ हुनर होता है ये। आते आते आता है। और कई बार तो आता ही नही। बाजीराव मस्तानी की स्टोरी टेलिंग अदभुत है। निर्देशक मां की शक्ल में नज़र आता है। अपने बच्चे/बच्ची को बड़े प्यार, दुलार से एक एक सीन समझाता जाता है और सब का सब गले के नीचे उतर जाता है।

तनु वेड्स मनु रिटर्न्स :  दिलचस्प कहानी,फ्लाइट में देखी और अपना छोटा सा पुराना शहर याद आ गया

सिंगापुर के रास्ते में फ्लाइट में देखी थी, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स। कानपुर जहां से ये  फिल्म आगे बढ़ती है, वहां रहा भी हूं। एकदम देशी कल्चर। फिल्म देखते हुए लगता है कि आप कानपुर में मोटरसाइकिल का लुत्फ़ लेते हुए बर्रा चौराहे से निकले हैं। फज़लगंज। किदवई नगर। गोविंद नगर। रावतपुर। गुमटी नंबर पांच। मोटरसाइकिल घूमती जा रही है। कानपुर इसकी बैक सीट पर पालथी मारकर बैठा हुआ। बड़ी ही अकड़ के साथ। नज़ारे आंखों में उतरते जा रहे हैं। एक मध्यमवर्गीय परिवार की जिंदगी अपने आप में बेहद दिलचस्प कहानी होती है। मगर इसकी तस्वीर खींच पाना, जितना मुश्किल होता है, उससे कहीं ज्यादा जटिल। तनु वेड्स मनु रिटर्न्स देखकर वे छोटे पुराने शहर याद आते हैं, जिन्हें हम इस भागदौड़ की जिंदगी में पीछे छोड़ आए हैं। हम सभी आज भी अपने अवचेतन में उन्हीं शहरों में रहते हैं। उन्हीं शहरों में जीते हैं। महानगरों की वातानुकूलित जिदंगी जब बुरी तरह ठंडा कर देती है। इतना ठंडा कि सारी संवेदनाएं। सारे एहसास। सारी कल्पनाएं। सब कुछ ठहर जाएं। जम जाएं। जकड़ जाएं। तो वे पुराने शहर बहुत याद आते हैं। उनकी धूल से इश्क हो जाता है। उनकी मिट्टी नशा भर देती है। पुरानी कहानियां ख्वाब की बंद गलियों में गुलज़ार हो उठती हैं। उनकी टूटी सड़कों पर उड़ने वाली गर्द किसी माशूका की तरह बाहें खोलकर बुलाती है। कि चले आओ। अब बहुत हुआ। वापस आ जाओ। तनु वेड्स मनु ने मुझे उन्हीं शहरों में ले जाकर छोड़ दिया। शायद अब तक नही लौटा हूं। वहीं पड़ा हुआ हैं। किसी जानी पहचानी। या फिर अनजानी सी खोह में।

 ’हमारी अधूरी कहानी’ : वो वसुधा का कार से जाने का सीन …तीन काल का एक साथ रिफ्लेक्ट होना
‘हमारी अधूरी कहानी’। मेरे लिए किसी फिल्म के दिल में उतर जाने की बड़ी अजीब गरीब सी वजहें होती हैं। एक अगर कायदे का सीन ऐसा मिल गया जो पूरी फिल्म का ड्राइविंग प्वाइंट हो, तो फिल्म नही भूलती। हमारी अधूरी कहानी के साथ भी ऐसा ही हुआ। फिल्म की ‘नायक’ वसुधा या विद्या बालन जब दुबई से वापस जाने का इरादा कर लेती है। माफ कीजिएगा मैं नायक जैसे पुरूषवादी शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं। पर पुरूषवादी अर्थों में ही कर रहा हूं। मुझे विद्या बालन ही इस फिल्म की नायक लगी। पूरी फिल्म ही एक महिला के कंधों पर बस्ते की शक्ल में घूमती है। वो वसुधा का कार से जाने का सीन। फिर अचानक ही कार से उतर जाना और लौटकर आरव (इमरान हाशमी) के गले लग जाना। इस सीन को फिल्म से निकाल दीजिए। फिल्म ओवर। इलाहाबाद में काफी थियेटर किया है। मन्नू भंडारी के महाभोज से लेकर सैमुअल बेकेट्स के थियेटर ऑफ अब्सर्ड ‘वेटिंग फार गोदो’ तक। ये पूरा सीन इस कदर सिंबोलिक था। तीन काल साथ-साथ रिफ्लेक्ट होते हैं। सीन एक ही वक्त में वर्तमान की मधुरिमा से निकलकर अतीत के कांटों में उलझ जाता है। भविष्य की खाइयां के मुंह पर अखबारी कागज का कोई ढक्कन लगा हो जैसे। गिरने की भरपूर गारंटी के बावजूद सीन अपने पांव उस कागज़ पर भी रख ही देता है। कागज के फटने और खाई में गिरने के बीच एक बार फिर से वर्तमान की मधुरिमा अपना हाथ उसके हाथों में देकर उसे आश्वस्त करती है। कि रुको। थोड़ा ठहरो। ये मांझी (अतीत) और मुस्तबिल (भविष्य) की लड़ाई तो शाश्वत है। चलती रहेगी। पर वर्तमान का हक। इन सबसे बड़ा है। इन सबसे अहम है। वर्तमान ही इंसान की सबसे बड़ी नियति है। उसकी सबसे बड़ी तकदीर।

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