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'क्या हम एक वक्त में दो लोगों को नहीं चाह सकते?' बासु दा की 'रजनीगंधा' का ये सवाल करोड़ों का है

बासु चटर्जी आज हमे छोड़कर चले गए लेकिन रजनीगंधा की दीपा जैसे करोड़ों हैं जो इस सवाल का जवाब मांग रहे हैं..सवाल चाह का है..वो भी मिडिल क्लास की चाह का..

Written by: Vineeta Vashisth
Updated on: June 04, 2020 21:42 IST
basu da- India TV Hindi
Image Source : SCREENGRAB  बासु दा की 'रजनीगंधा' का ये सवाल करोड़ों का है

क्या हम एक ही वक्त में दो लोगों को नहीं चाह सकते। बासु चटर्जी की फिल्म रजनीगंधा में जब दीपा (नायिका) अपने पूर्व प्रेमी की बगल में बैठी ये बात सोचती है तो वो कहीं से भी प्रेम अपराधी नहीं लगती। वो दरअसल अपने जैसे हजारों लाखों सामान्य दिलों में बसे एक करोड़ों के सवाल को दोहरा रही है। प्रेम में प्रतिबद्धता अच्छी बात है, लेकिन एक वक्त में दो लोग अच्छे लग सकते हैं और समाज के बाहरी आवरण की बात छोड़ दी जाए तो प्रेम वो अव्यकत धारा है जिसमें एक साथ दो चाह भी सुरमई अंदाज में बह सकती हैं। 

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क्या वाकई एक साथ दो लोगों की चाह रखना, बुरा है, अनैतिक है। प्लेटोनिक लव की व्याख्या जानने वाले इस पर तर्क कर सकते हैं कि भौतिक प्रेम की जलधारा कलुषित हो सकती है लेकिन मन वो चीज है जहां आप एक साथ दो चाह को रख सकते हैं। सच्चाई की बात की जाए तो एक वक्त में दो लोगों को चाहना ठीक वैसे ही है जैसे एक वक्त में दो फूलों की सुंदरता को देख पाना। 

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फिल्म की नायिका एक तरफ पुराने प्रेमी से कुछ संवाद, कुछ पुराने लम्हो को याद करने की दरकार करती है। लेकिन पुराना प्रेम तो पुराना हो गया। 

वर्तमान में जीने वाला मिडिल क्लास बहुत जल्दी स्थितियों को, चीजों को, माहौल को स्वीकारने का आदी हो जाता है। वो अड़ता नहीं, जड़ता नहीं क्योंकि जड़ता में प्रेम समाहित नहीं हो सकता। 

इसलिए जब दीपा घर लौटकर आती है तो उसे रजनीगंधा गीत के जरिए अपने वर्तमान प्रेम में बंधने की आकुलता दिखती है। यही सच है, सत्यम शिवं सुंदरम है। फिल्म के बीच में जहां हम रिश्तों की व्याख्या को उधेड़ना चाहते हैं , वहीं इस गीत के बाद हम सिर्फ इस जीवन की खूबसूरती और उसमें बसे प्यार का अनुभव करना चाहते हैं। 

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बासु दा की लगभग सभी फिल्मों में मध्यम वर्गीय जीवन की जिन बारीकियों को इतने सुंदर तरीके से दिखाया गया है कि दर्शक हर फिल्म में अपने आप को, अपनी व्यथा, अपनी जिंदगी को जीता है। बासु दा की फिल्में देखने के लिए नहीं जीने के लिए कारगर है। आप देखते जाइए, खुद को आइने में देखते जाइए। अंत इतना सुहाना कि मन से निकलता है कि वाह..अब सकून मिला। 

जीवन की छोटी छोटी परेशानियां, छोटी दिक्कते, खट्टे मीठे रिश्ते, बनते बूझते संबंध, बिलकुल सामान्य जीवन, लाखों करोड़ों होंगे उनके नायक अमोल पालेकर जैसे..यही तो खूबी थी उनकी फिल्मों की। 

फिल्म की पटकथा, कहानी, बैकग्राउंड, सब कुछ मेनस्ट्रीन सिनेमा से कितना अलग लेकिन कितना अपना सा लगता है। बासु दा ने लाखों करोड़ों के सेट, नाच गानों पर पैसा खर्च करने की बजाय दर्शको को वो दिखाने में सफलता हासिल की, जिससे वो गुजर रहा है।

अमीर दुुनिया का हीरो, गरीब दुनिया की सुंदर हीरोइन, इश्क, जुनून, बदला, सब कुछ कहा जा चुका है परदे पर। बॉलीवुड की सपनीली दुनिया मिडिल क्लास को बहुत कुछ दिखाती है, लेकिन सिनेमा हॉल से बाहर निकलते ही वो राजेश, मुकेश, सुरेश कुछ भी हो सकता है, जिसे अपनी बीवी से ही इतना प्यार हो कि कहानी बन जाए। उन मुकेश सुरेश, सुनीता, गीता के घरों की कहानियों को खूबसूरत रोमानी अंदाज में बासु दा ने दिखाया। हर एक दर्शक को लगा मानों उसकी कहानी हो..वो जी रहा हो उस दौर को। कल्पना, इश्क, बदले पर हजारों लाखों कहानियां बुनी जा चुकी है। लेकिन इन फिल्मों को देखता कौन है, वही मिडिल क्लास का दर्शक जिसकी नब्ज, जिसकी रग को पहचानने में बासु दा की अनुभवी आंखों ने बखूबी काम किया। 

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