मरहूम साहिर लुधियानवी के बगैर न उर्दू शायरी का इतिहास लिखा जाना मुमक़िन है और न हिंदी और उर्दू फ़िल्मी गीतों का। शब्दों और संवेदनाओं के जादूगर साहिर के सीधे-सच्चे लफ़्ज़ों में कुछ तो है जो सीधे दिल की गहराईयों में उतर जाता है। प्रगतिशील चेतना के इस शायर ने जीवन के यथार्थ और कुरूपताओं से बार-बार टकराने के बावजूद शायरी के बुनियादी स्वभाव कोमलता और नाज़ुकबयानी का दामन कभी नहीं छोड़ा। ग़ज़लों और नज़्मों की भीड़ में भी उनकी रचनाओं को अलग से पहचाना जा सकता है।
कैफ़ी आज़मी, शकील बदायूंनी और मज़रूह सुल्तानपुरी की तरह ही वे उर्दू अदब के साथ ही हिंदी-उर्दू सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतकार रहे। धर्मपुत्र, मुनीम जी, जाल, पेइंग गेस्ट,फंटूश, प्यासा, वक़्त, धूल का फूल, हम हिंदुस्तानी, सोने की चिड़िया,फिर सुबह होगी,टैक्सी ड्राइवर, मुझे जीने दो, साधना, देवदास, ताजमहल, हम दोनों, प्यासा, बरसात की रात, नया दौर, दिल ही तो है, गुमराह, शगुन, चित्रलेखा, काजल, हमराज़, नीलकमल, दाग, दो कलियां, इज्ज़त, आंखें, बहू बेगम, लैला मज़नू, कभी कभी आदि फिल्मों के लिए लिखे उनके सैकड़ों गीत कभी भुलाये न जा सकेंगे।
सिनेमा में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि वे अपने गीत के लिए लता मंगेशकर को मिलने वाले पारिश्रमिक से एक रुपया अधिक लेते थे। उन्हें यह श्रेय जाता है कि अपनी कोशिशों से उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो पर गीत बजाते समय संगीतकार और गायक के साथ गीतकार का नाम भी बताने की परंपरा शुरू कराई। साहिर के लफ़्ज़ों में जितनी चमक है, उनका व्यक्तिगत जीवन उतना ही उदास और अकेला रहा। अपने से उम्र में बहुत बड़ी विख्यात पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम से बहुत गहरे, लेकिन असफल और गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ नाकाम प्रेम संबंधों के बाद उन्होंने आजीवन अविवाहित रहना पसंद किया। पुण्यतिथि (25 अक्टूबर) पर इस महान शायर को खेराज़-ए-अक़ीदत, उनकी एक कालजयी नज़्म की पंक्तियों के साथ !
मेरे ख्वाबों के झरोकों को सजाने वाली
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं
मेरी उजड़ी हुई नींदों के शबिस्तानों में
तू किसी ख्वाब के पैकर की तरह आई है
कभी अपनी सी कभी ग़ैर नज़र आती है
कभी इख़लास की मूरत
(लेखक शकील अख्तर न्यूज चैनल इंडिया टीवी में कार्यरत हैं)