Highlights
- यूपी को सबसे बड़ा सियासी अखाड़ा कहा जाता है और 2022 के लिये यह अखाड़ा फिर सज गया है।
- यूपी में सवर्ण मतदाता 23 फीसदी हैं, जिसमें ब्राम्हण 11 फीसदी, राजपूत 8 फीसदी और कायस्थ 2 फीसदी हैं।
- यूपी में पिछड़े तबके में यादव वोट बैंक अच्छी खासी तादाद में हैं और मंडल के दौर से मुलायम सिंह के साथ हैं।
लखनऊ: उत्तर प्रदेश की सियासत में जाति है कि जाती ही नहीं। बीजेपी हिंदुत्व की राह को थामे जरूर है लेकिन जातीय समीकरण को भी दुरस्त किया जा रहा है। सीएम योगी कभी पिछड़े समाज के मौर्या जाति को तो कभी वैश्यों को लुभाने के लिए सम्मेलन करते हैं, वही ब्राह्मण समाज को लुभाने की कोशिश भी साफ नजर आती है। गैर कुर्मी और गैर यादवों पर फोकस कर रही बीजेपी ने तो अखिलेश के परंपरागत वोट बैंक यादव को भी अपने पाले में करने के लिए बीजेपी ने लखनऊ में सम्मेलन कर यादवों को साधने की सियासत भी करते नजर आई। आखिर हो क्यों न अगले साल विधानसभा चुनाव जो होना है और बिना जातीय समीकरण 5 कालीदास मार्ग की कुर्सी नही मिलती।
ब्राह्मणों की नाराजगी दूर करने की कोशिश
हुकूमत से ब्राह्मणों की नाराजगी को लेकर अक्सर खूब चर्चा हुई। विकास दुबे से लेकर हरिशंकर तिवारी के नाम पर सरकार पर ब्राह्मणों को टारगेट करने का आरोप लगा। सियासी सूझबूझ से वोटिंग करने वाले इस बुद्धजीवी वर्ग को साधने में सभी दल जुट गए हैं। बीजेपी भी ब्राह्मणों की नाराजगी को लेकर गंभीर है और समय-समय पर इनको साधने के लिए ब्राह्मण सम्मेलन करती रहती है। महर्षि भारद्वाज, महर्षि वशिष्ठ और महर्षि देवरहा बाबा के बहाने ब्राह्मणों को सम्मान देने का जिक्र किया।
इसी नाराजगी को समझ बसपा ने चुनावी रथ तैयार किया और अयोध्या से शुरू हुआ ब्राह्मण सम्मेलन। ब्राह्मण सम्मेलन का नेतृत्व सतीश चंद्र मिश्रा ने किया। 2007 के विधानसभा चुनाव में इसी वोट के सहारे मायावती सत्ता पर काबिज हुई थीं। ब्राह्मण को अपने खेमे में लाने के लिए अखिलेश यादव ने पूर्वांचल बाहुबली तिवारी परिवार को सपा में शामिल किया।
अल्पसंख्यकों और पिछड़ों को लुभाने में जुटी सपा
यूपी में पिछड़े तबके में यादव वोट बैंक अच्छी खासी तादाद में हैं और मंडल के दौर से मुलायम सिंह के साथ लामबंद हैं। हालांकि केंद्रीय चुनावों में इस तबके का सपा से मोहभंग भी हुआ है। इस बार बीजेपी की नजर भी यादवों पर है। बीजेपी अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह ने कमान संभालते हुए यादव सम्मेलन कर अखिलेश के मूल वोटर्स पर डोरे डालने की कोशिश भी की थी। उन्होंने कहा था कि यादव समाज राष्ट्रवादी होता है, यादव जातिवादी नहीं होते। लोग सोच रहे बीजेपी में यादव नहीं हैं, पर सबको पता होना चाहिए कि यादव की बदौलत बीजेपी चल रही है।
निषाद पार्टी के साथ से बीजेपी पूर्वांचल फ़तह करने में जुटी
यूपी में तकरीबन 12 फीसदी आबादी मल्लाह, केवट और निषाद जातियों की है। गोरखपुर, गाजीपुर, बलिया, संत कबीर नगर, मऊ, मिर्जापुर, भदोही, वाराणसी, इलाहाबाद ,फतेहपुर, सहारनपुर और हमीरपुर जिलों में निषाद वोटरों की अच्छी खासी संख्या है। निषाद पार्टी के अलावा मुकेश साहनी भी निषाद वोट बैंक पर दावा कर रहे है। निषाद कश्यप यूनियन भी पूर्वांचल में सक्रिय है। काजल निषाद के जरिये सपा भी निषाद वोटर्स को लुभा रही है। कांग्रेस पहले ही निषाद यात्राएं निकाल चुकी है। हर दल निषादों को लुभाने की कोशिश में जुटा है। अब बीजेपी के साथ निषाद पार्टी कब गठबन्धन का असर लगभग 50 से ज्यादा सीटों पर पड़ना तय है। संजय निषाद का कहना है बीजेपी से उनके समाज की मांगों को लेकर रस्साकशी थी जिस पर अब सहमति बन चुकी है और निषाद समाज उनके साथ है।
राजभर के सहारे पूर्वांचल पर पकड़ बनाने की कोशिश में अखिलेश
सपा प्रमुख अखिलेश यादव इस बार विधानसभा चुनाव मे सत्ता में वापसी के लिए सोची-समझी और सधी रणनीति के साथ चुनावी मैदान में कदम बढ़ा रहे हैं। इस क्रम में सूबे में राजनीतिक दलों से गठजोड़ करने के साथ-साथ अखिलेश अपने राजनीतिक समीकरण को भी दुरुस्त करते दिखई दे रहे हैं। पूर्वांचल की सियासत में किंगमेकर माने जाने वाले ओम प्रकाश राजभर को वह अपने पाले में पहले ही कर चुके है। पूर्वांचल में 18 प्रतिशत राजभर वोट है जो की 48 से 60 विधानसभा पर सीधा असर डालते है।
पश्चिम की बयार ने सपा का बढ़ाया आत्मविश्वास
RLD की ताकत ही जाट और मुस्लिम समीकरण की रही है। 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों ने इन दोनों समुदायों के बीच नफरत और दुश्मनी की ऐसी दीवार खड़ी कर दी कि RLD का ये समीकरण पूरी तरह ध्वस्त हो गया। जाट वोट बीजेपी के साथ शिफ्ट हो गया। मुस्लिम भी गैर-बीजेपी दलों में बंटकर रह गए। इस झटके से RLD उबर नहीं पाई। आलम यह है कि अब पार्टी अपने सियासी वजूद को बचाने की जंग लड़ रही है। 2014 के लोकसभा चुनाव में चौधरी अजित सिंह और उनके बेटे जयंत चौधरी भी चुनाव हार गए। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में RLD अकेले 277 सीटों पर चुनाव लड़ी लेकिन सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल कर सकी। 2019 का लोकसभा चुनाव भी RLD के लिए किसी बुरे सपने जैसा रहा। कागजों में बेहद मजबूत दिख रहा SP-BSP-RLD गठबंधन बुरी तरह फेल हो गया। RLD तीनों ही लोकसभा सीटें हार गई। अजित सिंह और जयंत चौधरी को एक बार फिर शिकस्त का सामना करना पड़ा।
बीजेपी की नजर अति पिछड़ी जातियों पर
इससे पहले सीएम योगी ने पिछड़ा वर्ग में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले मौर्या सम्मेलन में शिरकत कर अपनी सरकार के पिछड़े समाज के हित में किये कामों का ब्यौरा दिया। ताबड़तोड़ जातीय सम्मेलन की कड़ी में वैश्यों को साधने की भी कोशिश हो रही है बीजेपी नेता नरेश अग्रवाल की मौजूदगी में वैश्यों को ज्यादा से ज्यादा वोटिंग के लिए संकल्प दिलवाया गया तो बीजेपी अध्यक्ष ने दलितों को जाति और पैसों के नाम पर नही बल्कि राष्ट्र के नाम पर वोट देने के लिए समझाने की अपील की।
इस बार अल्पसंख्यकों पर ओवैसी की भी नजर
यूपी में मुस्लिम समुदाय को भी पिछड़ा वर्ग में गिना जाता है। यूपी में जनसंख्या के लिहाज से मुस्लिमों की आबादी 20 फीसदी है। 1990 से पहले इन वर्ग के वोट बैंक पर कांग्रेस पार्टी की मजबूत पकड़ हुआ करती थी लेकिन 1990 के बाद सपा और बसपा ने इस जाति पर मजबूत पकड़ बना ली। वहीं उत्तर प्रदेश में आजादी के बाद से ही इस जाति को केवल वोट बैंक ही समझा जाता रहा है। उसी समझ के साथ प्रदेश में AIMIM ले डेरा डाल दिया है।
दलित वोट बैंक में लगी सेंध को इस बार रोक पाएंगी मायावती
पिछड़ा वर्ग में दलित मतदाता की संख्या उत्तर प्रदेश की राजनीति में के बाद सबसे ज्यादा है। आजादी के बाद इस मतदाताओं पर सबसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी की पकड़ हुआ करती थी लेकिन बसपा के गठन के बाद इस जाति के सबसे बड़े मसीहा कांशीराम और मायावती बनकर उभरी। वहीं, दलित वोट बैंक गैर जाटव और जाटव में बंटा हुआ है। दलितों में जाटव जाति की जनसंख्या ज्यादा है जो कुल वोट बैंक का 54 फीसदी है। मौजूदा दौर में दलितों की मसीहा के रूप में बहुजन समाज पार्टी कि मायावती का नाम सबसे बड़ा है साथ ही साथ भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर भी अपना दावा मजबूत कर रहे है। बात करे 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 24 फीसदी दलितों का वोट मिला जबकि कांग्रेस को 18.5 फीसदी। 2014-2019 लोक सभा चुनाव, 2017 विधानसभा चुनाव से ये वोट बैक बीजेपी में शिफ्ट होता दिख रहा है।
इस बार किसके पाले में नजर आएंगे सवर्ण मतदाता
उत्तर प्रदेश में सवर्ण मतदाता 23 फीसदी हैं, जिसमें ब्राह्मण सबसे ज्यादा 11 फीसदी, राजपूत 8 फीसदी और कायस्थ 2 फीसदी हैं। सवर्ण जाति के वोट बैंक पर कभी भी किसी राजनीतिक दल का कब्जा नहीं रहा है। ये जातियां खुद ये तय करती है कि राजनीतिक पार्टियों में अपनी मजबूत दावेदारी किसको दी जाएं। 1990 से पहले उत्तर प्रदेश की सत्ता पर और 5 कालीदास मांग पर ब्राह्मण और राजपूत जातियों का खासा दबदबा था जिसके चलते उत्तर प्रदेश में 8 ब्राह्मणों मुख्यमंत्री और 3 राजपूत मुख्यमंत्री प्रदेश को मिले। अब फिर एक बार सत्ता पर दोबारा से काबिज होने के लिए बसपा और सपा ब्राह्मणों को रिझाने के लिए भरपूर कोशिश कर रही हैं। बहुजन समाज पार्टी ने जहां 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ब्राह्मण बाहुल्य जनपदों में ब्राह्मण सम्मेलन किया। वहीं अब समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मण के देवता के रूप में पूजे जाने वाले भगवान परशुराम की मूर्ति लगाने की बात कही। उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद, हमीरपुर, गौतम बुध नगर, प्रतापगढ़, बलिया, जौनपुर, गाजीपुर, फतेहपुर, बलरामपुर, गोंडा राजपूत की आबादी वाले जिले हैं तो वहीं ब्राह्मण आबादी वाले जिलो की संख्या 2 दर्जन से भी ज्यादा है।
यूपी की राजनीति में एक बात सबसे खास ये है कि जो इन जातियों के समीकरण को ठीक से बैठा पाता है वहीं यूपी की हुकूमत पर काबिज होता है। विधान सभा चुनाव से पहले हर पार्टी अपना अपना दावा ठोकती रही हैं कि उनका समीकरण सबसे सटीक है लेकिन असलियत क्या है ये तो विधानसभा चुनाव 2022 के परिणाम पर निर्धारित होगा।