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न घर के रहे न घाट के: बिहार में कई दलबदलू नेताओं को नहीं मिला 'ठौर-ठिकाना'

आम तौर पर किसी भी चुनाव से पहले अपने लाभ के लिए नेताओं के दल बदलने का रिवाज पुराना रहा है, लेकिन इस चुनाव में कई नेता ऐसे भी हैं जो चले थे 'हरिभजन को, ओटन लगे कपास'। नेताओं ने दल बदलकर अपने 'निजाम' तो बदल लिए, लेकिन उन्हें कहीं ठौर-ठिकाना नहीं मिला।

Reported by: IANS
Published on: March 31, 2019 16:33 IST
many bihar leaders did not get tickets who left their...- India TV Hindi
many bihar leaders did not get tickets who left their parties

पटना: आम तौर पर किसी भी चुनाव से पहले अपने लाभ के लिए नेताओं के दल बदलने का रिवाज पुराना रहा है, लेकिन इस चुनाव में कई नेता ऐसे भी हैं जो चले थे 'हरिभजन को, ओटन लगे कपास'। नेताओं ने दल बदलकर अपने 'निजाम' तो बदल लिए, लेकिन उन्हें कहीं ठौर-ठिकाना नहीं मिला।

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बिहार में इस लोकसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी (BJP) नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) और विपक्षी दलों के महागठबंधन के बीच है। बिहार की सभी 40 लोकसभा सीटों में से अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार तय कर लिए गए हैं, लेकिन कई दलबदलू नेता अभी भी अपने ठौर को लेकर परेशान नजर आ रहे हैं। अब स्थिति यह है कि ऐसे नेता या तो 'बिना दल' (निर्दलीय) चुनाव मैदान में उतरें या फिर नए दल में अपने बदले संकल्पों के साथ रहें।

बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी वर्ष 2015 में विधानसभा चुनाव हारने के बाद अपने कथित लाभ को लेकर जद (यू) के पूर्व अध्यक्ष शरद यादव के खेमे में चले गए। सूत्रों का कहना है कि चौधरी जमुई से चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन शरद यादव को मधेपुरा से राजद के चिन्ह पर चुनाव लड़ना पड़ रहा है और चौधरी कहीं से भी टिकट नहीं ले सके।

ऐसा ही हाल पूर्व सांसद आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद का हुआ है। लवली शिवहर सीट से चुनाव लड़ने की इच्छा लिए कांग्रेस में शामिल तो हो गईं, लेकिन शिवहर सीट महागठबंधन के घटक राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के खाते में चली गई। ऐसी स्थिति में लवली बतौर निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरने का मन बना रही हैं।

लवली आनंद कहती हैं, "मेरे साथ धोखा हुआ है। खरीद-फरोख्त की वजह से मुझे टिकट नहीं मिला है। हम और हमारे समर्थक हतप्रभ और निराश हैं। समर्थकों में निराशा और आक्रोश को देखते हुए शिवहर से निर्दलीय चुनाव लड़ूंगी और जीतूंगी। मेरे साथ जो विश्वासघात किया गया है, इसका असर शिवहर के साथ-साथ बिहार के कई संसदीय क्षेत्रों में भी महागठबंधन को खामियाजा भुगतना पड़ेगा।"

राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी (रालोसपा) के टिकट पर पिछले लोकसभा चुनाव में जहानाबाद से जीते अरुण कुमार की भी हालत कुछ ऐसी ही हो गई है। अरुण ने पहले रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा का साथ छोड़ा और खुद अपनी पार्टी बनाकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के करीबी बन गए। बाद में नीतीश से खटपट हुई, तब फिर कुशवाहा के पक्ष में बयान देते हुए उनके करीब आने की कोशिश की, लेकिन अंत तक बात नहीं बनी। वर्तमान समय तक वे बिना टिकट हैं और कोई दल उन्हें अब तक नहीं मिला है।

रालोसपा के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा के नजदीकी माने जाने वाले और पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष नागमणि की भी हालत कमोबेश यही है। नागमणि ने रालोसपा से इस्तीफा देकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का पिछले दो-तीन महीने से गुणगान कर रहे थे। उन्होंने काराकाट संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की इच्छा भी जाहिर की थी, मगर बाद में ये भी बेटिकट रह गए।

पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रामजतन सिन्हा ने भी लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस का 'हाथ' छोड़कर जद (यू) का दामन थामा था, लेकिन उन्हें भी टिकट को लेकर निराशा हाथ लगी है। रालोसपा के नेता रहे भगवान सिंह कुश्वाहा को भी उम्मीद थी कि उन्हें जद (यू) में जाने का लाभ मिलेगा और आरा की सीट से चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा। यही कारण है कि दिसंबर में उन्होंने पाला बदलकर जद (यू) के साथ हो लिए थे, मगर उन्हें भी इसका लाभ नहीं मिला।

इसके अलावा भाजपा से निलंबित सांसद कीर्ति आजाद कांग्रेस का हाथ थाम चुके हैं, लेकिन वे भी अब तक 'बेटिकट' हैं। उन्हें उम्मीद थी कि दरभंगा क्षेत्र से उन्हें उम्मीदवार बनाया जाएगा, लेकिन दरभंगा सीट राजद के खाते में चली गई। राजद ने अब्दुल बारी सिद्दीकी को दरभंगा से उम्मीदवार बनाया है।

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