बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए में सीटों का बंटवारा हो चुका है। बड़े भाई की भूमिका में रहने वाले जेडीयू के ख़ाते में कुल 122 सीटें मिलीं हैं,जिसमें से 7 सीटों पर जीतन राम मांझी की पार्टी चुनाव लड़ेगी। वहीं बीजेपी के ख़ाते में 121 सीटें हैं जिसमें से मुकेश साहनी की पार्टी 'वीआईपी' 11 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। कुल मिलाकर बिहार में एनडीए में दलों की संख्या चार है।
सीट बंटवारे के ऐलान के बाद बीजेपी का पूरा फ़ोकस इस बात पर रहा कि बिहार में एनडीए का चेहरा नीतीश कुमार ही होंगे और कोई नहीं, सीटें चाहे जितनी भी आए, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ही होंगे। प्रेस कॉन्फ़्रेंस में उप-मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि "मीडिया के बंधुओं से भी अनुरोध है कि किसी भी तरह के भ्रम में न पड़े। कहीं कोई कंफ़्यूजन, इफ़ या बट नहीं है। नीतीश कुमार जी ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। सुशील मोदी ने लोजपा अध्यक्ष चिराग़ पासवान के फ़ैसले पर तंज़ कसते हुए कहा कि श्री नीतीश कुमार जी ही एनडीए के सर्वमान्य नेता हैं। और जो उनको नेता मानेगा, वही एनडीए में रहेगा। हाल ही मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है।
बिहार बीजेपी के अध्यक्ष डॉक्टर संजय जयसवाल ने कहा कि "मैं फिर से एक बार दोहराना चाहता हूं कि बिहार में नीतीश कुमार जी ही एनडीए गठबंधन के सीएम पद के उम्मीदवार हैं। हम एक बार फिर 2010 का इतिहास दोहराने जा रहे हैं और तीन-चौथाई बहुमत के साथ जीत कर आएंगे।
बीते मंगलवार को बिहार बीजेपी के इन दो बड़े नेताओं के बयान के बाद मेरे ज़हन में दो सवाल आए। पहला सवाल- बीजेपी, जो ख़ुद को दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी मानती है, आख़िर वो बिहार में जेडीयू के नेतृत्व में चुनाव क्यूँ लड़ना चाहती है? दूसरा सवाल- आख़िर वो कौन सी मजबूरी कि राष्ट्रीय स्तर पर NDA का नेतृत्व में करने वाली बीजेपी, बिहार में जेडीयू के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है? इन दोनों सवालों का जवाब इलेक्शन कमीशन की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारियों से मिलता है।
बीजेपी और जेडीयू के बीच लोकसभा और विधानसभा चुनावों को लेकर तुलनात्मक अध्ययन करें तो मालूम चलता है कि बीजेपी से ज़्यादा पॉप्यूलर जेडीयू है या यूँ कहें कि बिहार में बीजेपी से ज़्यादा जेडीयू पर लोगों का भरोसा है। मैंने पिछले चार लोकसभा चुनावों में बीजेपी और जेडीयू की विजेता सीटों का आंकड़ें को इकट्ठा किया, उसमें से मैंने पाया कि साल 2014 का आम चुनाव छोड़ दें तो बीजेपी हमेशा जेडीयू से पीछे रही,या मामूली अन्तर से जेडीयू पीछे रही है। साल 2014 का वो चुनाव जिसमें हिन्दुस्तान को बताया गया था कि सिर्फ़ मोदी ही है जो सब कुछ बदल सकते हैं उसके अलावा कोई नहीं। इसी वज्ह से बिहार के लोगों ने भी 30 सीटों में से 22 सीटें बीजेपी के ख़ाते में डाले थे और जेडीयू 38 में से मात्र 2 सीटें जीत सकी।
साल 2019 में बीजेपी को जहां 17 सीटें मिलीं, वहीं दूसरी तरफ़ जेडीयू को 14 सीटें मिलीं। ये हाल तब है जब नरेन्द्र मोदी दूसरी बार पीएम बने। साल 2004 में बीजेपी को 5 तो, जेडीयू को 6 सीटें मिली थी। अगर साल 2009 के चुनाव की बात करें तो जेडीयू को कुल 20 सीटें तो वहीं बीजेपी को मात्र 13 सीटों से संतोष करना पड़ा था। बीते बीस साल के इन आंकड़ों के आधार पर देखें तो अब भी बिहार बीजेपी में राजकीय स्तर पर एक भी ऐसा चेहरा नहीं जो प्रभावशाली हो, बीजेपी को लीड करने की क्षमता हो।
अब अगर बात विधानसभा चुनावों की करें तो साल 2015 के चुनाव में जेडीयू और बीजेपी एक-दूसरे के ख़िलाफ़ चुनाव लड़े थे, जिसमें मोदी लहर के बावजूद विधानसभा चुनाव में बिहार के लोगों ने बीजेपी से ज़्यादा जेडीयू में लोगों ने भरोसा दिखाया था। वो दौर ऐसा था कि एक के बाद एक बीजेपी राज्य दर राज्य चुनाव जीतते जा रही थी। साल 2015 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को मात्र 53 सीटें और जेडीयू को 71 सीटें मिली थी। साल 2005 के विधानसभा चुनाव में एक ही साल में दो बार चुनाव हुए उसमें भी बीजेपी को दूसरी बार भी जेडीयू से कम सीटें मिली। बिहार के लोगों ने जेडीयू को 88 सीटों पर विजेता बनाया तो वहीं बीजेपी 55 सीटें ही हासिल कर पाई।
अब ज़िक्र साल 2010 के विस चुनाव का करते हैं, जिसके बारे में मंगलवार को हुई NDA की पीसी में बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जयसवाल ने की थी। डॉ.जयसवाल ने कहा था कि हम एक बार फिर 2010 का इतिहास दोहराने जा रहे हैं और तीन-चौथाई बहुमत के साथ जीत कर आएंगे। साल 2010 मे बीजेपी-जेडीयू को क्रमश: 115 और 91 सीटें मिली थी। डॉ.जयसवाल शायद यह बात कहते हुए भूल गए थे कि वो साल दूसरा था ये साल दूसरा है। साथ में भारतीय राजनीति में एंटी इनकम्बेंसी नाम की कोई चीज़ होती है। भले ही सीएम नीतीश कुमार इस बात को न स्वीकार करें, लेकिन लॉकडाउन के दौरान दूसरे राज्यों में फंसें बिहारियों में नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ काफ़ी नाराज़गी है। बीजेपी ने ऐसा कौन सा काम किया जिससे लोगों की नाराज़गी कम हो सके? आंकड़ें इस बात की साफ़-साफ़ गवाही दे रहें हैं कि आख़िर बिहार में बीजेपी क्यूँ मजबूर है। बिहार बीजेपी में फ़िलहाल ऐसा कोई नेता नहीं मालूम पड़ता है जो चेहरा बन सके। एक नेता हैं सुशील कुमार मोदी, जिनकों सिर्फ़ इतने में ही ख़ुशी मिलती है कि डिप्टी सीएम वाली उनकी कुर्सी बरक़रार रहे।
आदित्य शुभम इंडिया टीवी न्यूज चैनल में कार्यरत हैं, लेख में उनके निजी विचार हैं