नयी दिल्ली: सुप्रसिद्ध कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा कि हर आदमी सिर्फ़ अपने बारे में हलफ़ उठा सकता है। हम बहुत आसानी से दूसरों को कटघरे में खड़ा कर देते हैं और जज बन जाते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी साहित्य में एक मूल्यबोध रहा है और स्वतंत्रता, न्याय तथा लोकतंत्र, इनके बीच में तनाव और द्वंद भी रहता है लेकिन ये वो मूल्य हैं जो साहित्य से निकलते रहे हैं। ये ऐसे मूल्य हैं जिनके आधार पर हम ईमानदारी की भी जांच कर सकते हैं?
अशोक वाजपेयी शानी फ़ाउंडेशन द्वारा हिंदी साहित्य में वैचारिक ईमानदारी विषय पर आयोजित वेबिनार में बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि लेखक या सहित्य की ईमानदारी सिर्फ विचार की ईमानदारी नहीं होती। हिंदी साहित्य में दिक़्कत ये है कि विचार करते हुए ही विचारधारा का ख़्याल आता है और यहां विचार से ज़्यादा धाराएं नज़र आने लगती हैं। उन्होने कहा कि हमें इस बात से उत्साहित होना चाहिये कि हिंदी साहित्य में वैचारिक ईमानदारी की एक लंबी परंपरा है। सारी जटिलताओं के बावजूद हमारे समय और समाज में जो हो रहा है और ख़ासकर इसलिये कि जो साधन हैं सच्चाई को जानने के लिए वे कार्पोरेट और राजनीतिक शक्तियों द्वारा हथिया लिये गये हैं....ऐसे समय में साहित्य की ज़िम्मेदारी है कि वो इस सच्चाई को दर्ज करे।
वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने कहा कि जो लेखक कॉर्पोरेट और राजनीतिक सत्ता, इन दो शक्तियों के विरोध में नहीं हैं उसे मेरे लिये लिये लेखक मानना कठिन है भले ही वह अच्छा लेखक हो। वामपंथी सत्ताएं एक-दो देशों को छोड़कर अन्य जगह ढह चुकी हैं लेकिन वामपंथ को अभी तक पीटा जाता है। वामपंथी विचारधारा सत्ता के रुप में विखंडित हो गई है लेकिन विचार के रूप में जीवित है। आज दक्षिणपंथी, हिंदुत्ववादी और राष्ट्रवादी कट्टररतावाद है जिसका नंगा नाच हो रहा है हिंदी साहित्य में अवसरवादी विचारधारा ने एक स्थाई स्थान बना लिया है।
वरिष्ठ साहित्यकार ममता कालिया के अनुसार आज का समय बहुत जटिल है। आज आपको पता ही नहीं चलता कि जो अन्यायी है वो वाक़ई में खलनायक है या वो एक छद्म रूप लेकर हमारे सामने आया है। आज वैचारिक ईमानदारी के साथ-साथ वैचारिक समझदारी की भी बहुत ज़रुरत है। कार्पोरेट जगत की बात करें तो बच्चे कहते हैं कि ईमानदारी की बात हमसे नहीं कीजिये क्योंकि ईमानदारी कुत्तों का काम है। आज राजनीति ने हमारे विचार जगत को इतना आक्रांत कर दिया है कि हम डरते हैं कि कहीं हमारी विचारधारा प्रकट न हो जाए। आज के लेखकों में ये चालाकी और समझदारी आ गई है कि वो अपनी विचारधारा को प्रछन्न रखकर भी रचना करता रहता है। शानी और राही मासूम रज़ा उस विचारधारा के अंतिम प्रतिनिधि थे। विचारधारा वाले लोग कई बार बहुत कट्टर हो जाते है। वैचारिक ईमानदारी का मतलब ये है कि आप जो लिख रहे हैं उसके प्रति आपके अंदर एक पक्षधरता हो और सही बात के लिये हो।
कथाकार शशांक ने कहा कि लेखकों और कवियों से ज़रुरत से ज़्यादा उम्मीद की जा रही है। हर साहित्याकार का एक दृष्टिकोण होता है और सारे दृष्टिकोणों को मिलाकर एक विचारधारा बनती है। मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई ने कहा था कि विचारधारा ही साहित्य नहीं होता। श्यामाप्रसाद दूबे के अनुसार एक ही समय में पचास समाज रहते हैं। जो उन समाजों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और अगर उनके लेखन में उनका अनुभव न हो तो वे आपकी नैतिकता को भी स्वीकार नहीं करेंगे।
पत्रकार और साहित्यकार अनंत विजय ने कहा कि मेरे जैसे लोगों को ये समझने में दिक़्क़त होती है कि निराला रचनावली में कल्याण के हिंदू संस्कृति अंक या कृष्णभक्ति अंक में प्रकाशित निराला के लेखों को क्यों निकाल दिया जाता है। उन्होंने कहा कहा कि एक बार नेहरु जी ने पूछा कि यशपाल जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार क्यों नही दिया जा रहा तो हजारी प्रसाद द्वेदी जी ने कहा कि वो आपके ख़िलाफ़ लिखते हैं इसलिये उन्हें पुरस्कार नहीं दिया गया। इस पर नेहरु जी ने कहा कि मेरे ख़िलाफ़ लिखने वाले को पुरस्कार न देने का नियम साहित्य अकादमी में कबसे लागू हुआ। उन्होंने कहा कि ये वैचारिक बेईमानी है, वैचारिक स्खलन है। विचारधारा सुई के समान है, इससे सीने का काम भी लिया जा सकता है और चुभाने का भी। हिंदी साहित्य में इसका इस्तेमाल चुभाने के लिये ही किया जाता रहा है। वेबिनार का संचालन वरिष्ठ पत्रकार और कहानीकार मुकेश कुमार ने किया।