नई दिल्ली: देश की आजादी के सुनहरे दिनों को जब भी याद किया जाएगा जिक्र इस बात का भी होगा कि ठीक 69 साल पहले भारत को न सिर्फ अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति मिली थी बल्कि देश को वो आजादी भी मयस्सर हुई जिसने भारत के अर्थशास्त्र को वह दिशा भी देने का प्रयास किया जिसके जरिए मुकम्मल भारत का सपना बुना जाना था। जैसे-जैसे भारत नित नई ऊंचाइयों को छूता रहा देश की अर्थव्यस्था ने भी समय-समय पर काफी सारे उतार चढ़ाव देखे। देश की अर्थव्यवस्था ने एक ओर जहां खुशहाली का मौसम देखा तो दूसरी ओर उसने आर्थिक संकट के उस पतझड़ का भी सामना किया जिसने देश के खजाने को गिरवी रखने के हालात पैदा कर दिए। अगर अब तक की भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास क्रम को समझने की कोशिश की जाए तो इसे तीन काल खंड में बांटा जा सकता है।
• भारतीय अर्थव्यवस्था में उदारीकरण से पहले का दौर (1947-1991)
• उदारीकरण के बाद का सुनहरा दौर (1991 से मई 2014)
• मई 2014 के बाद से पनपे सकारात्मक व्यापारिक परिप्रेक्ष्य
साल 1947 से लेकर 1991 तक भारतीय अर्थव्यवस्था का बाल्यकाल-
• उस दौर में देश की अर्थव्यस्था की रीढ़ कृषि और उद्योगों पर टिकी हुई थी।
• अर्थव्यवस्था काफी हद तक सोवियत रूस से प्रेरित थी।
• योजना आयोग सरीखी केंद्रीयकृत इकाईयों का गठन जिसको यह जिम्मा सौपा गया था कि वो अहम परियोजनाओं के लिए खर्चे की अनुमानित राशि को निकालकर उसे सही तरीके से आवंटित करने का काम करेगा।
• इस दौर में सभी तरह के काम सरकार द्वारा किए जाते थे, ये उस दौर के लिहाज से अच्छे तो नहीं, लेकिन सराहनीय थे। क्योंकि विश्व स्तरीय IITs, AIIMS खोले जा चुके थे।
• इस दौर में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जा चुका था। उस समय ऐसा माना जाता था कि प्राइवेट सेक्टर सिर्फ मुनाफा कमाना जानते हैं इसलिए लोगों में विश्वास था कि अगर सिर्फ सरकार परियोजनाओं को चलाएगी, तभी देश तरक्की के रास्ते पर अग्रसर हो पाएगा। तब निजी क्षेत्रों को हेय दृष्टि से देखा जाता था और उद्यमिता को दुर्लभ प्रजाति माना जाता था।
• प्रतिस्पर्धा न के बराबर थी। India Unbound में लिखी एक लाइन के मुताबिक जब किसी ने नेहरू से प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के बारे में सलाह दी थी तो उनका जवाब था कि हमें 15 तरह के टूथपेस्ट की क्या जरूरत है?
• भ्रष्टाचार बड़े स्तर पर था लेकिन पारदर्शिता और मीडिया की कम जागरूकता के चलते सब कुछ ठीक ठाक जान पड़ता था।
• लाइसेंस राज के चलते भारत में व्यापार करना मुश्किल था। विदेशी कंपनियां भारत के बड़े बाजार में दस्तक देने से कतराती थीं।
• इसका परिणाम यह होता था कि हमारे माता-पिताओं के पास उस तरह के विकल्प नहीं हुआ करते है जैसे कि आज हम लोगों के पास हैं। उन्हें सरकारी नौकरी की उम्मीद रहा करती थी। अगर टाटा और बिड़ला को छोड़ दें तो निजी व्यापारियों में किसी को भी उतनी इज्जत नहीं मिलती थी। आर्थिकी के लिहाज से एमएनसी तब के दौर में उतना बड़ा शब्द नहीं हुआ करता था। इसलिए बिहार जैसे प्रांतों के लोग सरकारी नौकरियों को ही पसंदीदा मानते थे।
• इस दौर में दो तरह की क्रांतियां देखने को मिली एक हरित क्रांति और दूसरी सफेद क्रांति। इसने भारत को सक्षम बनाने के साथ साथ उसकी आयात निर्भरता को भी काफी हद तक कम कर दिया। भारत के लिए यह इस दौर की सबसे बड़ी उपलब्धि थी।
• हमारी पीढ़ियों की तुलना में उस दौर के लोगों के पास सीमित विकल्प और कम आशाएं थीं। वो कभी इस बात को महसूस नहीं कर पाते थे कि वो किस चीज से वंचित हैं।
• हमारा विदेशी मुद्रा भंडार साल 1991 के आस पास अब तक के सबसे खराब हालात में था और इसी वजह से तात्कालीन वित्तमंत्री को इस मजबूर हालात में देश की अर्थव्यवस्था के द्वार सभी के लिए खोलने पड़े थे।
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