नई दिल्ली: सरकारी महकमों से जारी होने वाले तमाम आर्थिक आंकड़ें सरकारी नीतियों की सफलता का आईना होते हैं। साथ ही रुपए की सेहत, शेयर बाजार की चाल, कंपनियों की विस्तार योजनाएं और देश में विदेशी निवेश का अर्थशास्त्र भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इन्ही आर्थिक आंकड़ों पर टिका है। ऐसे में अगर सरकारी आंकड़ों की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे तो अंदाजा लगाइए कि समस्या कितनी गंभीर है? या कह दें कि जनता से सरकार के सरोकार की बुनियाद ही कमजोर हो चली है।
महंगाई और जीडीपी ग्रोथ रेट फिलहाल केवल इन्ही दो अहम आंकड़ों की बात करें तो बीते एक साल में जमीनी हकीकत और सरकारी आंकडों में बड़ा फर्क नजर आता है।
मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद बीते एक साल में थोक महंगाई दर 6.18 फीसदी से घटकर -2.65 फीसदी रह गई। मुद्रास्फीति की दर का नकारात्मक होना देश में महंगाई खत्म होने या कहिए मंदी शुरु होने की दस्तक है। लेकिन 100 रुपए किलो अरहर की दाल खरीद रही जनता इन आंकड़ों पर कैसे भरोसा करे। कैसे एक जून से 14 फीसदी सर्विस टैक्स देने वाली जनता को यह भरोसा होगा कि देश में महंगाई कई दशको के निचले स्तर पर आ पहुंची है।
वित्त वर्ष के बीचोबीच में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना का तरीका बदलकर सरकार ने 2013-14 में 4.7 फीसदी की दर से बढ़ रही इकोनॉमी को 6.9 फीसदी की ऊंचाई पर पहुंचा दिया, लेकिन इस कदम से देश के भीतर और बाहर अभी भी असमंजस है। यह समझना मुश्किल है जब बैंको की क्रेडिट ग्रोथ 20 साल के निचले स्तर के करीब हो हो, निर्यात का घटना बीते 6 महीने से चिंता का सबब बना हो, बेमौसम बारिश ने कृषि क्षेत्र की समस्याओं को पहाड़ सा बना दिया हो और रियल इस्टेट सेक्टर मंदी की मार झेल रहा हो तब देश की तरक्की के बुनायादी पैमाने की ग्रोथ रेट को डबल डिजिट में ले जाने का दावा कितना पुख्ता और दूरदर्शी है।
सरकार की कोशिश आंकड़ों में दिखने वाले अच्छे दिनों को हकीकत में उतारने की होनी चाहिए।