Russia-Ukraine News: रूस और यूक्रेन के बीच तनाव अपने चरम पर पहुंचता हुआ नजर आ रहा है। इस तनाव में तीसरे विश्वयुद्ध की आहट सुनाई दे रही है। कोविड से पहले जहां दक्षिण चीन सागर में तनाव अमेरिका और चीन के बीच बढ़ गया था। तब यह कहा जा रहा था कि अगला विश्वयुद्ध हिंद महासागर में लड़ा जाएगा। लेकिन कोरोना काल के बाद समीकरण बदले और विश्वयुद्ध की आहट का केंद्र महासागर से उठकर यूरोप पहुंच गया है। रूस के लाखों सैनिक यूक्रेन सीमा पर तैनात हैं। रूस ने परमाणु सैन्य अभ्यास भी कर लिया है। बेलारूस के साथ फाइटर हवाई जेट भी इलाके में उड़ाकर भी इपने इरादे स्पष्ट कर दिए। वहीं अमेरिका ने भी चेतावनी भरे लहजे में रूस को अपनी हद में रहने की हिदायत दे दी है। दरअसल, यूक्रेन पर रूस के कब्जे की सोच के पीछे का सच क्या है, क्या ये दो बड़ी धुरियों के बीच की लड़ाई है? क्या ये शक्तिशाली रूस से नाटो देशों को बचाने की अमेरिकी लड़ाई है? क्या रूस 1991 से पहले वाली प्रतिष्ठा वापस पाने के लिए छटपटा रहा है? क्या अमेरिका अफगानिस्तान मामले में हुई भगोड़े वाली इमेज को चमकाने के लिए यहां दबदबा कायम करना चाहता है? जर्मनी और फ्रांस जो दोनों विश्वयुद्धों के बड़े खिलाड़ी थे, रूस और यूक्रेन मामले में उनकी भूमिका क्या होगी, इस सब सवालों के समीकरणों को जानेंगे और एक्सपर्ट की राय भी समझेंगे।
यूक्रेन नाटो में न जाए, यह गारंटी चाहता है रूस
अगर रूस अपने पड़ोसी देश यूक्रेन पर हमला करता है और लड़ाई शुरू होती है तो मानवीय संकट की आशंका पैदा हो सकती है। रूस ने यूक्रेन सीमा के समीप 1,00,000 से अधिक सैनिकों को एकत्रित कर लिया है लेकिन साथ ही कहा है कि उसकी हमले की कोई योजना नहीं है। वह पश्चिम देशों से यह गारंटी चाहता है कि नाटो यूक्रेन तथा पूर्व सोवियत संघ के अन्य देशों को इस पश्चिमी सैन्य गठबंधन का हिस्सा बनने नहीं देगा। पिछले महीने पेरिस में मुलाकात करने वाले जर्मनी, फ्रांस, रूस और यूक्रेन के विदेशी नीति सलाहकारों ने बर्लिन में एक और दौर की वार्ता की। उन्होंने 2015 के शांति समझौते के क्रियान्वयन पर कोई प्रगति नहीं होने की बात कही।
रूस, अमेरिका और यूरोपीय देश सभी इसी पक्ष में कि युद्ध न हो
विदेश मामलों के जानकार रहीस सिंह कहते हैं कि तीसरा विश्व युद्ध होगा, यह कहना मुश्किल है। दरअसल, रूस ताकत के जरिए अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है यूक्रेन पर, इसका कारण है कि रूस चाहता है कि यूक्रेन नाटो की ओर न जाए। इसलिए रूस इतने दिनों से यूक्रेन पर हमले का ड्रामा कर रहा है, ताकि ये लोग उसके साथ समझौते के लिए तैयार हों। रूस की मंशा बड़ी गहरी है। 1991 से पहले वह सोवियत संघ कहलाता था, तब वह काफी ताकतवर था। लेकिन अब वह अमेरिका से टकराकर और खराब नहीं करना चाहता अपनी इकोनॉमी, जो पहले ही कोरोनाकल में प्रभावित हो गई है। पुतिन इतने कमजोर राजनीतिज्ञ नहीं हैं कि उन्हें युद्ध से हानि के बारे में पता न हो।
जर्मनी और फ्रांस समझौते के पक्ष में
ये सच है कि जर्मनी ने यूक्रेन को हाल के समय में हथियार सप्लाई करने से मना कर दिया है। जर्मनी में एंगेला मर्केल युग समाप्त होने के बाद उसका झुकाव रूस यानी समाजवाद की ओर भी ज्यादा है। फिर भी जर्मनी नहीं चाहेगा कि यूरोप में युद्ध हो और यूरोपीय यूनियन और खुद उसकी इकोनॉमी खराब हो।
अलग था एंगेला मर्केल और सरकोजी का युग
फ्रांस इस लड़ाई में अकेला है। पहले एंगेला मर्केल और सरकोजी का युग था, जो पूंजीवाद की तरफ यानी अमेरिका की ओर ज्यादा झुकाव रखता था। अब वह अकेला पड़ गया है और कोरोना के कारण डांवाडोल इकोनॉमी को बचाना चाहता है। इसलिए न जर्मनी और न ही फ्रांस यूरोप में किसी भी तरह का युद्ध चाहते हैं।
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